बात से मन हल्‍का होता है

Friday, April 3, 2009

ऐसे करें उम्‍मीदवार को अस्‍वीकार


लोकसभा चुनाव में अगर आपके क्षेत्र में ऐसे उम्‍मीदवार मैदान में है, जिन्‍हें आप अपने प्रतिनिधित्‍व के लायक नहीं समझते तो उसे अस्‍वीकार भी कर सकते हैं। निर्वाचन आयोग ने बकायदा प्रत्‍येक बूथ पर ऐसी व्‍यवस्‍था की है कि लोग मतदान पत्र पर अंकित उम्‍मीदवारों को अस्‍वीकृत कर सकता है। पिछले कई चुनावों से ऐसी व्‍यवस्‍था है लेकिन अब तक इसका  विशेष  प्रचार प्रसार नहीं हो सका। इस बार कुछ गैर सरकारी संस्‍थाओं के प्रयास से इस व्‍यवस्‍था को प्रकाश में लाया गया है। 
कैसें करें अस्‍वीकार
आमतौर पर मतदाता मतदान स्‍थल पर नहीं जाकर ही स्‍प ष्‍ट कर देते हैं कि वो उपलब्‍ध प्रत्‍याशियों में किसी को अपने प्रतिनिधित्‍व के लायक नहीं मानता। ऐसे में यह स्‍पष्‍ट नहीं होता कि उम्‍मीदवार को अस्‍वीकृत किया गया है अथवा मतदाता ने लापरवाही पूर्वक मतदान नहीं किया। अगर अपनी भावना को  प्रदर्शित करना है तो मतदाता को मतदान स्‍थल तक जाना होगा। बूथ के अंदर अपना नाम दर्ज कराना होगा, अंगुली पर निशान लगवाना होगा लेकिन जब इलेक्‍टानिक वोटिंग मशीन पर बटन दबाने की बात आए तो संबंधित अधिकारी को कह सकते हैं कि ''इनमें से मुझे किसी को वोट नहीं देना'' ऐसा कहने पर वहां रखे एक रजिस्‍टर में आपका नाम अंकित कर लिया जाएगा। चुनाव मतगणना के दौरान यह स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि आपके क्षेत्र में कितने लोगों ने मतदान करने से इनकार कर दिया यानि उम्‍मीदवार उन्‍हें पसन्‍द नहीं थे। यह व्‍यवस्‍था किसी भी स्थिति में उम्‍मीदवार को नकारने की नहीं है, अगर आपके क्षेत्र के पचास फीसदी से अधिक लोग भी वोट देने से इनकार कर देंगे तो शेष का चुनाव वैध होगा। दरअसल हमारे देश में उम्‍मीदवार को नकारने की व्‍यवस्‍था नहीं है। हां, अगर हम वोट देने से इनकार करते रहे तो चुनाव व्‍यवस्‍था में यह परिवर्तन आ सकता है। फिलहाल आयोग के नियम 49 ओ के तहत वोट नहीं देने की व्‍यवस्‍था है। इसके जरिए हम अपनी भावना जता सकते हैं।
बांग्‍लादेश में नकार सकते हैं उम्‍मीदवार को
बांग्‍लादेश में अपने उम्‍मीदवार को नकार सकते हैं। वहां मतदान पत्र पर बकायदा एक ''अदृश्‍य उम्‍मीदवार'' होता है। यानि अगर पांच प्रत्‍याशी मैदान में है तो मतदान पत्र पर छह खाने होंगे। अगर आपको पांचों उम्‍मीदवारों में से कोई भी पसन्‍द नहीं आता तो आप छठे यानि ''अदृश्‍य उम्‍मीदवार'' को वोट दे सकेंगे। अगर ''अदृश्‍य उम्‍मीदवार'' को सर्वाधिक मत मिलते हैं तो  क्षेत्र में नए सिरे से मतदान होता है। ऐसे में शेष पांच स्‍वत ही किनारे हो जाते हैं।
स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं  का प्रयास
दरअसल, देश की अनेक स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं का प्रयास है कि ''अदृश्‍य उम्‍मीदवार'' की व्‍यवस्‍था भारत में भी लागू हो। अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए ही इस व्‍यवस्‍था का भी प्रचार किया जा रहा है कि उम्‍मीदवार को पसन्‍द नहीं  करने वाले अपने घर पर बैठने के बजाय मतदान केंद्र पर पहुंचकर मतदान से इनकार करें। घर पर तो अनपढ और असमझ वाला व्‍यक्ति भी बैठता है।मतदान

Tuesday, March 31, 2009

आओ ''पूर'' फाडे


आईए जनाब । कुछ बात करते हैं, कुछ पूर फाडते हैं। शायद आप पूर का अर्थ समझते होंगे। नहीं समझते तो हम बताए देते हैं। पूर का अर्थ है कपडा यानि आईए हम कपडे फाडते हैं। दरअसल हमारे देश में कपडे फाडने का एक सीजन आता है, यह तो खुद की महर है कि हमारे देश  में ऐसा सीजन बार बार आता है, जो लोग पूर फाडने के शौकीन है और जिनका अस्तित्‍व ही पूर फाडने पर टिका हुआ है, उन लोगों का जीवन ही इसी कारण चल रहा है कि समय समय पर पूर फाड लेते हैं। निश्चित ही आप इतने नासमझ नहीं है कि पूर फाडने की इस परम्‍परा के बारे में नहीं जानते हो। हमारे यहां (वैसे विदेशों में भी) पूर फाडने का सीजन चुनाव ही है। जब जब चुनाव आता है तब तब हमारे यहां के लाखों या फिर करोडों लोगों को यह मौका मिल जाता है। आजादी के बाद से देश में प्राय पांच वर्ष की सरकार रही है कभी कभार ही तेरह दिन के हालात आए हैं। ऐसे में पांच वर्ष तक पूरा अवसर मिलने के बाद भी कोई बात नहीं कहते। बहुत कठिन काम है कि हम पांच वर्ष तक किसी भी गंभीर से गंभीर बात को पचा जाते हैं, बोलते तक नहीं है, साथ रहकर भी शांत और सौम्‍य बने रहते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव आयोग रिवाल्‍वर की गोली हवा में फायर करके तथाकथित 'आचार संहिता' लगाता है, वैसे ही हमारे यहां पूर फाडने वालों की दौड शुरू हो जाती है। अब आप यह मत समझना कि मैं ब्‍लॉग पर आपके बारे में कुछ लिख रहा हूं, आप और मैं तो बहुत छोटे प्‍यादे हैं, हम तो उन पांच सौ खास पूर फाडने वालों की चर्चा कर रहे हैं जो हर वक्‍त साथ रहकर भी पांच वर्ष नहीं बोले और आज जब आचार संहिता लग गई तो एक दूसरे के कपडे फाड रहे हैं, कोई गबन का आरोप लगा रहा है तो कोई चरित्र का। यह सही है कि जनता के बीच बोलने का यही अवसर है लेकिन जनाब पांच वर्ष संसद में कुछ बोल लेते तो जनता को वैसे ही पता चल जाता। मजे की बात है कि चार वर्ष तक साथ रहने के बाद एक बडे दल को सरकार में खोट नजर आ गई और पांच साल पूरे होते होते पूरी सरकार बेकार हो गई। क्‍या नेता इतने नादान थे कि शुरू में पता नहीं था कि जिन्‍हें समर्थन दे रहे हैं वो देश का भला कर सकेंगे या नहीं ? अगर पता नहीं था तो उन्‍हें इस बार ध्‍यान रखना होगा कि किसी भी स्थिति में समर्थन नहीं दें। यह मत कहना कि फलां पार्टी फलां पार्टी से बेहतर है, इसलिए समर्थन दे रहे हैं। जिस तरह इन दिनों सामने वाले के पूर फाड रहे हैं, वैसे ही फाडते रहना। अब जो सरकार में थे, उनकी बात कर लें। अब सामने वालों पर तरह तरह के आरोप लगा रहे हैं, जब सरकार में थे पांच साल तक बोले ही नहीं। किसी के बारे में तो क्‍या अपने बारे में भी नहीं मिले। ऐसे में किसी ने किसी के इशारे पर चलने की बात कह दी तो क्‍या गलत ? अब पांच साल बीते तो वो भी पूर फाडने चले। तब यह किया, तब वह किया। अरे जनाब पांच साल आपके पास सत्‍ता थी, उन्‍होंने कुछ गलत किया तो आप सुधार देते। आपने उसी मुद़दे पर क्‍या किया, जिस पर सामने वाले के  बारे में बोल रहे हैं? चूंकि चुनाव के वक्‍त पूर फाडने की परम्‍परा है इसलिए आप भी बोल गए। सबसे ज्‍यादा सवाल तो खास प्रतिद्वंद्वी पर है, आपने ऐसा क्‍या किया पांच वर्ष  में कि देश की धारा बदलती। दो चैनल को भाषण्‍ा देने और अपनी वेबसाइट को एडजस्‍ट करने के अलावा। जब आप रथ पर सवार होकर पूरे देश को नाप रहे थे, तब क्‍या छोटी छोटी समस्‍याओं के बारे में पता नहीं चला, अगर चला तो उनके बारे में संसद में बोलने से क्‍या परेशानी हो रही थी ? आपने भी वर्ष के अंत में भरोसा कर लिया कि जनता को क्‍या लेना क्‍या देना जो सोचे कि किसने पांच वर्ष क्‍या किया? वैसे आप भी सही सोचते हैं, जनता कब सोचती है, सोचती तो देश की राजनीति का यह हाल होता ? शायद नहीं, वैसे ज्‍यादा परेशान मत होना हमने भी पूर फाडने की रस्‍म अदायगी ही की है।

Friday, March 27, 2009

राहुल प्रियंका जैसे हो वरुण


गांधी परिवार में अब तक इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मेनका गांधी और प्रियंका वाडरा को ही गंभीरता से लिया जाता रहा है। पिछले कुछ दिनों से वरूण गांधी सुर्खियों में है। वरूण को समझने का अब तक वक्‍त नहीं मिला है लेकिन जितना समझा है उससे यह स्‍पष्‍ट है कि वो संजय गांधी के पद चिन्‍हों पर ही चल रहे हैं। पिता की तरह पूरी तरह तल्‍ख है, आक्रोश में बोलते हैं तो सोच फिकर नहीं करते, यह भी नहीं सोचते कि कहां क्‍या बोलना है और कहां ? पिछले दिनों मीडिया ने वरूण का पीछा किया लेकिन उन्‍हें कोई नुकसान नहीं हुआ। वरूण क्‍या बोले इस बारे में सभी को पता है इसके बाद भी भारतीय राजनीति ने अपने स्‍वभाव के मुताबिक इस पूरे मामले को फर्जी बताने में कोई कोर कसर नहीं छोडा। अगर राहुल गांधी भी ऐसा कुछ बोल देते तो कांग्रेस भी उन्‍हें बचाने के लिए कुछ ऐसा ही करती। किसी भी स्थिति में यह सिर्फ भाजपाई नेतागिरी से जुडा मामला नहीं है। चिंता का विषय तो यह है कि गांधी परिवार के इस वंशज के मुंह से इस तरह की बात सुनकर आम आदमी क्‍या सोचता है ? गांधी परिवार के तीन युवा इन दिनों  राजनीति में सक्रिय है और यह भी कहां जा सकता है कि कल की राजनीति भी इन्‍हीं के आसपास रहेगी। राहुल गांधी बोलते नहीं है लेकिन जब बोलते हैं तो पूरे अधिकार के साथ  अपनी बात रखते हैं। अविश्‍वास प्रस्‍ताव के वक्‍त उन्‍होंने संसद में जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ करके स्‍वयं भाजपा नेताओं से कहा इस पर तो ताली बजा दो, उन्‍होंने दो टुक कहा कि  सरकार रहे या न रहे हम प‍रमाणु समझौता करेंगे ताकि देश आगे बढे। मुझे उनमें कहीं राजीव गांधी की झलक दिखाई दी। राजीव गांधी  ने कम्‍प्‍यूटर युग की शुरूआत करते वक्‍त काफी विरोध का सामना किया। राहुल और राजीव गांधी में दिन रात का अंतर होगा लेकिन लगता है एक दिन वो राजीव गांधी के समकक्ष खडे होंगे। दूसरी  तरफ प्रियंका गांधी वाडरा है जो पर्दे के पीछे रहकर राजनीति में ज्‍यादा विश्‍वास रखती है। प्रियंका ने पिछले दिनों फिर स्‍पष्‍ट कर दिया कि वो चुनाव नहीं लड रही। अपनी मां के संसदीय क्षेत्र में उनकी सक्रियता से ही स्‍पष्‍ट है कि वो कुशल राजनीतिज्ञ है। वो आम आदमी के बीच जाने से हिचकिचाती भी नहीं है तो बडे मुद़दों पर अधिकार पूर्वक अपनी बात रखने का विश्‍वास भी रखती है। जब राजीव गांधी का अंतिम संस्‍कार हो रहा था तब इन दो बच्‍चों को देखकर नहीं लगता था कि कभी राजनीति यह कुशल नेतृत्‍व करने की स्थिति में आएंगे।  यह कांग्रेस की ''प्रोफेशनल टेनिंग'' का हिस्‍सा हो सकती है लेकिन यह स्‍पष्‍ट है कि राहुल और प्रियंका हर हाल में वरूण गांधी से अधिक  परिपक्‍व दिखाई देते हैं। निश्चित रूप से आज संजय गांधी होते तो देश की राजनीति का स्‍वरूप कुछ अलग होता ऐसे में वरूण गांधी भी नए चेहरे के रूप में होते। मेनका गांधी अपने अपने बेटे को प्रोफेशनल नहीं बना सकी। वैसे भारतीय राजनीति में सफलता उन्‍हीं के हाथ लगती है जो बढचढ कर बोलते हैं और चर्चा में बने रहते हैं। अब तो कांग्रेस भी नरेंद्र मोदी के साथ वरूण गांधी का नाम लेने लगी है। वरूण ने अब तक किसी गंभीर मुद़दे अपने विचार नहीं रखे। रखे भी है तो प्रभावी रूप से जनता के सामने नहीं आए। जो विचार आए हैं वो प्रभावित तो करते हैं लेकिन बिगडे हुए स्‍वरूप में। देश में ऐसे लोग भी है जो वरूण गांधी को भी राहुल और प्रियंका की तरह राजनीति में चमकते देखना चाहते हैं। क्‍योंकि संजय गांधी के दिवाने आज भी कायम है।

Wednesday, March 11, 2009

मुशर्रफ को पडे दो थप्‍पड

कोई आपके घर में आपके ही परिवार को तोडने का प्रयास करें तो आप क्‍या करेंगे। निश्चित रूप से आरती तो नहीं उतारेंगे, अति हुई तो थप्‍पड जरूर लगा देंगे। पिछले दिनों पाकिस्‍तान के पूर्व तानाशाह और स्‍वयं को राष्‍टपति बताने वाले परवेज मुशर्रफ इंडिया टूडे के कान्‍क्‍वलेव में आए। आए भी क्‍या इस बदमिजाज को बुलाया गया। खाली बैठे सेवानिवृत को कामकाज था नहीं, इसलिए भारत आ गए। यहां आकर इस शख्‍स अपना असली चेहरा दिखा दिया। यह भी बता दिया कि बन्‍दर बुढा होने पर भी गुलाटी खाना नहीं भूलता, कुत्‍ता बुढा होने पर भी भौंकना नहीं छोडता और मुशर्रफ कुछ भी नहीं होने के बाद भी पाकिस्‍तान से भारत रिश्‍ते खराब करने की फितरत नहीं छोडता। विशेषकर मुर्शरफ ने कहा कि भारत में रहने वाले मुसलमानों के साथ अच्‍छा व्‍यवहार नहीं होता, भारत के मुसलमान तकलीफ में है, भारत में इसी‍लिए मुस्लिम में कटटरपंथी बढ रहे हैं और आतंकवादी घटनाएं बढ रही है। यह तो शुक्र है कि वहां मदनी जैसे सांसद उपस्थित थे, जिन्‍होंने भारत को जीया है, जो सच्‍चे भारतीय है। मदनी ने उस खुर्राट, बदमिजाज तानाशाह को ऐसा जवाब दिया कि मुशर्रफ बगले झांकने लगे। मदनी ने साफ कहा कि आप भारत में रह रहे मुसलमानों की चिंता छोड दें, हम पाकिस्‍तान से अधिक है और अपनी हिफाजत करना चाहते हैं, मदनी ने बता दिया कि यह देश उनका है, किसी धर्म का नहीं। सही भी है भारत में हिन्‍दू मुसलमान एक है, अपनी समस्‍या अपने झगडे हैं, पाकिस्‍तान को इससे क्‍या लेना देना। दो भाई लडे या प्रेम करे, पडौसी क्‍या लेनदेन। फिर ऐसे पडौसी को तो चिंता करनी ही नहीं चाहिए, जिनके घर से फूटे बर्तन हर रोज सडकों पर आकर गिरते हो। बेहतर होगा मुशर्रफ को मदनी जी की सलाह मान लेनी चाहिए और अपने घर का ध्‍यान रखना चाहिए। पिछली कुछ घटनाओं के बाद तो लगने लगा है कि पाकिस्‍तान का नामोनिशान ही खत्‍म होने वाला है। जिस तरह के गह युद़ध के हालात वहां बने हैं उससे हम सीमावर्ती (पाकिस्‍तान से महज डेढ सौ किलोमीटर की दूरी पर) रहने वालों को डर लग रहा है कि टूटा तो हमारे यहां भी कोई शरणार्थी पहुंच जाएगा। मुशर्रफ को एक और थप्‍पड पडा था जब उन्‍होंने दाऊद इब्राहिम को देने पर भी भारत में शांति नहीं होने की बात कही। एक 'भारतीय' ने कहा आप तो दाऊद को सौंप दें, बाकि हम देख लेंगे।  वैसे मुशर्रफ के भारत में आकर इस तरह के मामले को मीडिया ने ज्‍यादा गंभीरता से नहीं लिया। शायद इसलिए कि वो अब इस तरह की शख्सियत ही नहीं है कि गंभीरता से लिया जाए या फिर शायद इसलिए कि किसी के भौंकने का समाचार अखबारों में नहीं छपता। मेरा मानना है कि ऐसे लोगों को हमारे देश में आने की अनुमति ही नहीं देनी चाहिए जो इस तरह की बयानबाजी करते हैं, भारत में क्‍या ऐसी कोई कानूनी धारा नहीं है जिसके तहत मुशर्रफ के खिलाफ अशांति फैलाने के प्रयास का मामला दर्ज हो सके। वैसे मदनी ने जो सजा दी वो समझदार को सुधारने के लिए काफी है। उम्‍मीद है मुशर्रफ दोबारा हमारे मामले में टांग नहीं अडाएंगे। हम साथ थे, साथ है और साथ रहेंगे।

Thursday, March 5, 2009

यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र' की बस यादें

मुझे लगता है ब्‍लॉग जगत में साहित्‍यकारों का भारी जमावडा है। उन्‍हीं साहित्‍यकारों के लिए एक दुखद समाचार है कि हिन्‍दी जगत के विख्‍यात कथाकार यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र' अब दुनिया में नहीं रहे। 'चंद्र' का यहां सेप्‍टीसीमिया रोग के कारण निधन हो गया। 'चंद्र' हिन्‍दी जगत के उन चंद कथाकारों व साहित्‍यकारों में शामिल थे, जिनका जीवन सिर्फ और सिर्फ लेखन को समर्पित रहा। आज जब अधिकांश लेखक अपना घर चलाने के लिए लेखन के साथ ही या तो सरकारी नौकरी करते है या फिर कोई अन्‍य कामकाज। ऐसे में चंद्र सिर्फ लेखन से जुडे रहे। किताब लिखते, बाजार में बिकती और चंद्र का घर चलता। 'चंद्र' का नाम हर कहीं अंकित है। यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र' के बारे में कुछ जानकारी इस प्रकार है
उपन्‍यास - सन्‍यासी और सुंदरी, दीया जला दीया बुझा, हजार घोडों पर सवार, कुर्सी गायब हो गई, एक और मुख्‍यमंत्री, खम्‍मा अन्‍नदाता, पराजिता, खून का टीका, ढोकन कुंजकली, गुलाबडी, सपना, मोहभंग आदि
कहानी संग्रह - मेरी प्रेम कहानियां, श्रेष्‍ठ आंचलिक कहानियां, विशिष्‍ठ कहानियां, जमीन का टुकडा, जंजाल तथा अन्‍य कहानियां, महापुरुष आदि अनेक कथासंग्रह
नाटक - ताश का घर, महाराजा शेखचिल्‍ली, मैं अश्‍वत्‍थामा, चुप हो जाए पीटर, चार अजूबे, आखिरी पडाव, जीमूतवाहन, महाबली बर्बरिक, 
सम्‍मान - राजस्‍थान पत्रिका सृजन पुरस्‍कार की श्रेणी में वर्ष 1996 में 'गुळजी गाथा' पर पुरस्‍कृत,  साहित्‍य महोपाध्‍याय, साहित्‍यश्री,  डॉ राहुल सांकृत्‍यायन, साहित्‍य महोपाध्‍याय
विशेष - उनकी रचना 'हजार घोडों पर सवार' पर टीवी धारावाहिक बना, 'लाज राखो राणी सती' नामक पहली राजस्‍थानी फिल्‍म भी 'चंद्र' के लेखन का परिणाम थी, गुलाबडी, चकवे की बात और विडम्‍बना पर टेलीफिल्‍म बनी।

Tuesday, March 3, 2009

जीवंत है बीकानेरी पाटा


मुझे खुशी है कि बीकानेर पधारने के मेरे न्‍यौते को आप लोगों ने स्‍वीकार किया। पिछली पोस्‍ट के बाद अधिकांश लोगों ने बीकानेरी पाटों के बारे में जानने की उत्‍सुकता रखी। यह मेरे लिए और भी रोमांचक है। पाटों से पहले मैं आपको बीकानेर शहर से परिचय कराना चाहूंगा। बीकाजी ने इस शहर की स्‍थापना की। शहर पूरी तरह से एक सफील (यानि शहर के चारों तरफ एक दीवार है ) है। आज तो शहर विस्‍तृत हो गया लेकिन कुछ दशकों पहले तक शहर के चारों तरफ लगे दरवाजे बंद हो जाते थे। रात बारह बजे बाद न तो कोई शहर से बाहर निकल सकता था और न ही कोई शहर में प्रवेश कर सकता था। जस्‍सूसर गेट, नत्‍थूसर गेट, गोगागेट, शीतला गेट और कोटगेट को बन्‍द कर दिया जाता। रात के समय शहर पूरी तरह एक घर की तरह बन्‍द हो जाता। ठीक वैसे ही यहां के बाशिन्‍दे आराम की नींद सोते जैसे आप अपने घर का दरवाजा बन्‍द करके सोते हैं। शहर के अंदर बने घरों के दरवाजे खुले रहते क्‍योंकि शहर बाहर से पूरी तरह बन्‍द है। रात में लोग ठीक वैसे चौक में बैठ जाते जैसे आप नींद नहीं आने पर घर की लॉबी में बैठ जाते हैं। 1980 से पहले बीकानेर में दूरदर्शन का दर्शन नहीं था इसलिए सिर्फ पाटे ही एकमात्र वक्‍त काटने का स्‍थान था। हर चौक में एक पाटा रख दिया गया, इस पर दिन में बुजुर्ग बैठते तो शाम को किशोर शतरंज की चाल चलाते हैं और रात को युवा और अधेड एक साथ बैठकर चर्चा करते हैं। सर्दी हो या गर्मी बीकानेर के पाटे कभी सूने नहीं रहते। पाटों पर शहर हर वक्‍त जागता रहता है। पाटा है कि कभी सोता नहीं, उसकी गोद में कोई न कोई बैठा ही रहता है। ऐसे चौक भी हैं, जहां रातभर रौनक रहती है। अब चुनाव का मौका है तो आप बीकानेर के किसी भी पाटे पर पहुंचकर देश की हर सीट के बारे में चर्चा कर सकते हैं। यहां के लोगों सामान्‍य ज्ञान इतना बेहतर है कि दक्षिण की एक एक सीट के बारे में भी इन पाटों पर चर्चा सुन सकते हैं। अगर आप भटटडों के चौक में स्थित पाटे पर शाम को पहुंचे तो सच मानिए सुबह तक वहां से उठ नहीं सकेंगे। आपको आश्‍चर्य होगा कि पाटे के चारों और बसे लोग यहां आकर बैठ जाते हैं। घर वाले खाने के लिए आवाजें लगाते लगाते थक जाते हैं तो पाटे पर ही थाली पहुंचा देते हैं। खाना किस घर से आया है किसी को इससे सरोकार नहीं है, भूख है तो उठाया और खा लिखा। ऐसा भी होता है कि आवाज लगातार रात को दो बजे घर की महिलाओं से खाना मंगवा लिया जाता है। मोहतों के चौक में स्थित पाटे पर भी आपको रातभर रौनक मिलेगी। हर्षों के चौक में स्थित पाटे पर तो आपको शतरंज की चाल चलने का अवसर भी मिल सकता है। यहां शाम से देर रात तक शतरंज की इतनी चाले चलती है कि खुद लकडी का वजीर भी बोल देता है 'भाई बस करो, थक गया हूं।' हर चौक में लकडी का बना पाटा ही लगा है। इन पाटों की उम्र कम से कम सौ वर्ष है। कुछ ऐसे चौक भी है, जहां हाल ही में पाटे लगे हैं। अब फैल चुके शहर के लोग दूर कॉलोनियों में भी रहने लगे हैं लेकिन रात को एक बार पाटे पर आए बिना उनको नींद नहीं आती। इन्‍हीं पाटों पर जीवन के संघर्ष की कहानी है तो इन्‍हीं पाटों पर दुख दर्द भी बंट जाता है, इन्‍हीं पाटों पर बैठकर स्‍कूल के लिए बस का इंतजार होता है, इन्‍हीं पाटों पर कॉलेज जाने के लिए साथी का इंतजार होता है, इन्‍हीं पाटों पर ऑफिस जाने से पहले ब्रिफकेस रखी जाती है तो इन्‍हीं पाटों पर लाडो और लाडी की सगाई तय हो जाती है, इसी पाटे पर पाते और दोहिते होने की मिठाई बंटती है। पाटा जीवन से पहले और जीवन के बाद तक साथ देता है। मृत्‍यु के बाद इन्‍हीं पाटों पर 'बैठक' भी होती है। इन्‍हीं पाटों पर अगली पीढी अपने जीवन का सफर तय करती है। सच मानिए इस पाटे पर जीवन है। सच मानिए अगर आप रुचि लेंगे तो पाटो से जुडे कई रोचक तथ्‍य भी आगे बताऊंगा। 

Thursday, February 26, 2009

पधारो म्‍हारे सैर बीकानेर


शहर के ठीक बीच में खडे होकर किसी भी दिशा में पांच किलोमीटर के लिए निकल जाए आपको समुंद्र नजर आएगा।मिट़टी का समुंद्र। दूर तक इंसान तो क्‍या घास फूस भी नहीं दिखेगा। कुलाचे मारता हरिण आपका मनोरंजन कर सकता है तो कभी कभार ऊंट पर लदे बच्‍चे  आपके आगे से गुजरते हुए अपनी हंसी से आपको गुदगुदा सकते हैं। ढेढ देहाती अंदाज में यहां का ग्रामीण सिर पर पगडी बांधे आपको जींस और टी शर्ट में अचरज भरा देख सकता है। औरतों का चेहरा देखना आपकी किस्‍मत में नहीं  होगा, क्‍योंकि मुंह ढककर चलने की परम्‍परा को यहां के बाशिन्‍दे आज भी निभा रहे हैं। यह बीकानेर है। आप शायद बीकानेर को पापड और भुजिया के लिए जानते होंगे या फिर हमारे नए सितारे संदीप आचार्य, राजा हसन और समीर (तीनों युवा गायक)  के कारण जानते होंगे। मैं आपको अपने शहर में इसलिए लाया हूं क्‍योंकि यहां घूमने का मजा इन्‍हीं दिनों में है। आप यहां आ नहीं सकते, इसलिए यहां की मस्‍ती से मैं आपको नियमित रूप से रूबरू करने का प्रयास करूंगा। इस शहर की मस्‍ती दुनिया के किसी भी शहर के आगे ज्‍यादा चमक रखने वाली है। यहां के लोग इतने संतोषप्रद है कि बडी से बडी समस्‍या को झेल लेंगे लेकिन झगडा नहीं करेंगे। यहां हिन्‍दू भी है और मुसलमान भी। दोनों बडी संख्‍या में है फिर भी कभी साम्‍प्रदायिकता ने इस शहर को अपनी जद में नहीं लिया। ऐसे मुसलमान भी है जो ब्राह़मणों की तरह प्‍याज तक नहीं खाते तो ऐसे हिन्‍दू भी है जो मुसलमानों के घर को अपना परिवार समझते हैं। होली हो या दीवाली मुस्लिम मोहल्‍ले भी कम रोमांच में नहीं होते। घर पर दीपक भले ही न जले लेकिन पटाखों की धूम और नए कपडे पहनकर शहरभर में घूमने में वो भी पीछे नहीं। रोजे के वक्‍त हिन्‍दूओं के घर खाना बनता है और मुस्लिम के घर जाकर रोजा खुलवाया जाता है। ऐसे परिवारों की संख्‍या लम्‍बी चौडी है जो किसी न किसी रोजेदार को अपने घर का खाना खिलाने की होड में रहता है। यहां जगह जगह दरगाहें हैं। हर छोटे बडे काम के लिए हिन्‍दू इन्‍हीं दरगाहों के आगे मत्‍था टेकते हैं और काम होने पर फिर मत्‍था टेकने जाते हैं। आपने बडे शहरों को रात में जागने के किस्‍से तो सुने होंगे, अब मेरे शहर का नाम भी इसी सूची में डाल दें। बीकानेर शहर रात को भी जागता है। पान की दुकान रात को दो बजे से पहले  बंद नहीं होती और ताश कूटते कूटते चार बजाना यहां हर चौक का शगल है। यहां चौक ठीक वैसे ही हैं, जैसे घर में होते हैं। आप नींद से उठकर सीधे अपने घर के चौक (आंगन) में पहुंचते होंगे, वहीं बैठकर सोफे पर चाय पीते होंगे। मेरे शहर में लोग उठकर सीधे घर से बाहर निकलते हैं चौक में रखे पाटे पर बैठते हैं और वहीं चाय पीते पीते दिनभर का कार्यक्रम तय करते हैं। इन्‍हीं पाटों पर दिन में वृद़ध जन अपनी टीम के साथ बैठकर अखबारों को खंगालते हैं, हर खबर की मुरम्‍मत करते हैं, अमेरिका से लेकर पास वाले चौक तक की खबरों  का आदान प्रदान करते हैं, चर्चा करते हैं, कभी कभी बहस करते हैं और बहस बाद में बोलचाल तक बदल जाती है। अगले ही पल बहस को खत्‍म करने के लिए रबडी मंगा ली जाती है। जिसने ज्‍यादा जोर से बोला उसे रबडी के उतने ही ज्‍यादा पैसे देकर जुर्माना भरना होगा। यहां गलियां छोटी और संकडी है लेकिन दिल बहुत बडे हैं। चौक में सफाई के लिए आने वाली नगर निगम की सफाई कर्मचारी का विवाह चौक वाले कर देते हैं क्‍योंकि उसकी लडकी उनके  देखते देखते बडी हो गई तो चौक की भी बेटी हुई ना। यहां बडे से बडा गम हवा हो जाता है और बडी से बडी खुशी बंटती बंटती सभी का आल्‍हादित कर देती है। पाटा यानि चौक में लगा लकडी का लम्‍बा चौडा तख्‍त। इसी पाटे पर ब्‍याह शादी में दुल्‍हा बैठता है और इसी पाटे पर शोक के दिनों में बैठक होती है। हर पाटे का अपना इतिहास है और पाटे का अपना संघर्ष है। इन पाटों ने शहर को बदलते देखा है और संस्‍कृति के बदलते अंदाज को भोगा है, फिर भी कहूंगा पाटों  के दम  पर ही इस शहर की जीवनशैली आज तक जीवित है। अब आप सोचेंगे कि मैं आपको अचानक अपने शहर की तरफ क्‍यों ले आया। दरअसल मेरे शहर में इन दिनों सर्वाधिक रौनक है। पता नहीं दूसरे शहरों में होली कैसे और कितने दिन मनाते हैं लेकिन मेरे शहर बीकानेर में होली शुरू हो चुकी हैं। चंग की थाप हर किसी को अपनी ओर खींच रही है तो हल्‍की सर्द हवाओं के बीच जगह जगह चंग की धमाल पर स्‍वांग नाचते दिख सकते हैं। अगर आप पसन्‍द करें तो मैं मेरे शहर की होली से आपको हर रोज रूबरू करवा सकता हूं। सिर्फ चंग ही नहीं हर्ष और व्‍यास जाति के बीच होने वाले डोलची खेल में भी आपको ले जाऊंगा। जहां एक एक बार करके हर्ष और व्‍यास जाति के लोग एक दूसरे की पीठ पर पानी से वार करते हैं। यह वार इतना घातक होता है कि दिल में उतर जाता है, जितना तेज पडता है प्‍यार उतना ही बढता है। यहां रंगकर्म का अनूठा अंदाज ''रम्‍मत'' सभी को चौंकाने वाला है। साठ वर्ष का अदाकार जब रात से सुबह तक मंच पर अभिनय करते करते सुबह डॉयलाग बोलता है तो एक किलोमीटर दूर भी लोगों को आवाज बिना माइक के सुनाई देनी है। अगर आप बीकानेर की होली से रूबरू होना चाहते हैं तो इच्‍छा जताए ताकि मैं उतने ही जोश के साथ लिख सकूं।