Sunday, October 30, 2011
बचाना होगा टीम अन्ना को
अन्ना हजारे की टीम को लेकर सवाल खडे हो रहे हैं। ऐसे लग रहा है जैसे किसी सरकार के मंत्रियों को घेरने का प्रयास हो रहा है। यह ठीक वैसे ही प्रतीत हो रहा है जैसे विपक्ष सक्रिय हो गया है और एक सरकार को गिराने का प्रयास किया जा रहा है। इस बार पर विपक्ष कोई एक पार्टी नहीं बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियां है। भ्रष्टाचार से लड़ने निकले अन्ना हजारे को अब भ्रष्टाचार के साथ इन राजनीतिक पार्टियों से भी लड़ना होगा। अन्ना के अनशन के बाद से अब तक जिस तरह से कांग्रेसी नेताओं ने छोटी बड़ी बातों के लिए टीम अन्ना को घेरने का प्रयास किया है वो खिसयानी बिल्ली खंभा नौचे जैसा है। समझ नहीं आता कि जिस आदमी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई है, उसकी टीम पर ही सारे दल सवाल क्यों उठ रहे हैं। पहले केजरीवाल को आयकर का नोटिस और बाद में किरण बेदी पर विमान किराए में बचत करने का आरोप। कांग्रेस आरोप लगा रही है और विपक्षी पार्टियां मौन रहकर इसे समर्थन दे रही है। मानो सभी मिलकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अन्ना और उनकी टीम को किनारे करना चाहते हैं। हरियाणा में कांग्रेस का विरोध टीम अन्ना की गलती नहीं है। देश की आजादी के लिए हर उस माध्यम को अपनाया गया था, जिससे अंग्रेजों की आंख खुले। टीम अन्ना भी वो सब करना चाहती है जिससे कांग्रेस सरकार की नींद उगड़े। देश की आजादी की इस दूसरी लडाई में जब टीम अन्ना ने हरियाणा में विरोध किया तो राजनीतिक पार्टियों को आभास हो गया कि अन्ना की शक्ति क्या है। भले ही वोट पर असर कम पड़ा लेकिन माहौल में कांग्रेस का विरोध शुरू हो गया। भाजपा सरकार में होती तो टीम अन्ना निश्चित रूप से भाजपा का विरोध करती। ऐसे में पार्टी विशेष से नहीं बल्कि सिस्टम से झगड़ा साफ प्रतीत होता है। यह झगड़ा किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि पूरे देश के लिए है। टीम अन्ना ने यह निर्णय सही किया उन्हें टूटना नहीं है बल्कि साथ मिलकर लड़ना है। इस समर में कुछ और लोगों को साथ मिलना चाहिए। जो किनारे हो रहे हैं, उन्हें सोचना चाहिए। देश की आजादी से जुड़े तथ्यों को टटोलना चाहिए। आरक्षण की लड़ाई में देशभर में लोगों ने आत्मदाह किया लेकिन अन्ना के आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऐसे आंदोलन को बचाना भी आम आदमी का दायित्व है। अगर टीम अन्ना भ्रष्टाचार कर रही है तो वो भी इसी कानून के दायरे में आएंगे। टीम अन्ना को उन लोगों से अवश्य बचना होगा जो भ्रष्टाचार में डूबे हैं और स्वयं को बचाने के लिए इस अभियान से जुड़ना चाहते हैं। फिलहाल ऐसी कोई शख्सियत टीम अन्ना के कोर ग्रुप में नजर नहीं आती।
Tuesday, July 26, 2011
प्रधानमंत्री को पत्र
आदरणीय मनमोहन सिंह जी
सादर नमस्कार। मुझे पता है मेरा यह पत्र आपके ध्यान में नहीं आना। मैं सिर्फ अपनी भड़ास निकाल रहा हूं। न सिर्फ मैं बल्कि पूरा देश इन दिनों भड़ास ही निकालने का काम कर रहा है। पिछले दिनों मेरी बाइक का एक ट़यूब पंक्चर हो गया। दुकानदार के पास गया, पंक्चर निकलवाया, उसने चालीस रुपए मांग लिए। कुछ वर्ष पहले तो चालीस रुपए में एक लीटर पेट़ोल आ जाता था। पंक्चर तो पांच रुपए में निकलता था। यानि पंक्चर की कीमत में चार गुना हो गई। आप जैसे महान अर्थशास्त्री के समक्ष मेरा यह तर्क गुस्ताखी ही माना जाएगा, फिर भी देश के एक अरब सामान्य अर्थशास्त्रियों यानि नागरिकों का गणित भी साफ सुथरा है। उनका कहना है कि सरकारी कर्मचारियों और नरेगा के श्रमिकों के अलावा देश में किसी का वेतन नहीं बढ़ा। भाव सब के बढ़ गए। मैंने जब दुकानदार को पंक्चर की रेट ज्यादा बताई तो उसने मुझे कहा भाईसाब मनमोहन सिंह जी से बात करो। महंगाई तो उन्होंने बढ़ाई है। एक पत्र उनको लिख देना। उसने तो मुझे अति में कही लेकिन फिर भी मैं आपको पत्र लिखने बैठ ही गया। सच बताएं कि आखिर महंगाई रोकने के लिए देश में क्या हो रहा है। कितना दुख का विषय है कि हम अपने देश में सिर्फ सरकारी कर्मचारी को ही नागरिक मानते हैं, जिन्हें छठा वेतनमान मिल गया। गैर सरकारी क्षेत्रों के आगे क्या सरकार ने घुटने टेक दिए हैं। जाति के नाम पर सर्वे करने वाली सरकार क्या यह सर्वे नहीं करा सकती कि देश में कितने लोगों को क्षमता से कम भुगतान मिल रहा है। वो दिनभर में जितना श्रम देता है, उतना दाम मिल रहा है नहीं। मजे की बात है कि देश में लोग गरीबी के कारण काल के ग्रास बन रहे हैं आपकी सरकार घोटालों में व्यस्त है। अब तो राजा ने भी कह दिया है कि आपको सब पता था। हमें नहीं पता कि वो सच कह रहा है या गलत। हम तो सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि आपसे जो उम्मीद थी वो पूरी नहीं हो रही। महंगाई दूर नहीं कर सको तो उसे रोक तो सकते हो। अरबो करोड़ों रुपए आप सिलेण्डर की कीमत बढ़ाकर जुगाड़ करना चाहते हैं, मेरा आग्रह है इतनी राशि तो दो चार मंत्रियों पर कड़ी नजर रखकर ही बचाए जा सकते है।
दुनिया में सिर्फ भारत ही ऐसा नहीं है जहां महंगाई बढ़ी है लेकिन अन्य देशों में सुधार के कार्यक्रम भी चले। आपने देश में गरीब को मुफ़त शिक्षा का नारा दिया। बच्चे स्कूलों में पहुंच गए लेकिन टाइ बेल्ट, महंगी किताबों, जूते और यूनीफार्म में ही उसके गरीब का जनाजा निकल गया। इससे अच्छा तो वो सरकारी स्कूल में ही था। जहां थोड़ा बहुत पढ़ने के साथ सब कुछ फ्री था। अब बात करें दो अक्टूबर से मिलने वाली फ्री दवाओं की। चिकित्सकों ने अभी से ऐसा माहौल बना दिया है कि इन दवाओं में दम नहीं होगा। वितरण के लिए आम आदमी चक्कर काटता रहेगा। बेहतर होगा कि मुफ़त दवाओं की व्यवस्था पुख्ता करें ताकि गरीब दवा के इंतजार में ही दम नहीं तोड़ दे। ऐसा नहीं हो कि डॉक्टर अस्पताल में तो जेनरिक दवा लिखे और घर पर कम्पनी की। घर वाली दवा से रोगी ठीक होंगे तो सरकारी में दिखाने भला कौन जाएगा। वैसे मेरा मानना है कि इन उपायों से गरीबी खत्म नहीं होने वाली। हर हाथ को काम देने से ही गरीबी का खात्मा होगा। रोजगार देने से पहले आपकी केंद्र सरकार और हमारी राजस्थान सरकार इतने रोड़े अटकाती है कि बेरोजगार के आगे से बे हटता ही नहीं है। शिक्षक भर्ती ही लें टेट का ऐसा लफडा डाला कि अधिकांश लोग इसे पास नहीं कर सकेंगे और उनकी बीएड डिग्री कचरे के ढेर में डाल दी जाएगी। पेटोल सिलेण्डर और डीजल की कीमतों में कमी करके आप महंगाई पर नियंत्रण कर सकते हैं। आपको सब्सिडी ही कमानी है तो धन्नासेठों से कुछ और वसूल कर लो। उनके सागर से एक लोटे पानी का असर नहीं पड़ता। लेकिन जिसके पास मटकी तक नहीं है, उसका एक लोटा पानी भी कीमती है। सरकार सागर वालों को छोड; मटकी वालों पर ही अपनी ताकत लगा रही है। छोटे निर्णय प्रधानमंत्रीजी आपके स्तर के नहीं है लेकिन देश की नब्बे फीसदी जनता को इन्हीं सवालों से मतलब है ।
ज्यादा में कह दी हो तो बुरा मत मानना। वैसे आप अब सुन सुनकर इतने पक्के हो गए कि कोई फर्क नहीं पड़ता।
सादर
अनुराग हर्ष
Friday, April 22, 2011
महक वंफा की रखो और बेहिसाब रखो.
देश में एक नए गांधी का उदय अन्ना हजारे के रूप में हुआ। परसो तक हजारे को कोई नहीं जानता था लेकिन कल वो गांधी हो गए और आज उसी गांधी पर छींटाकशी का दौर शुरू हो गया। न सिर्फ छींटाकशी बल्कि अदालतों में उनके खिलाफ जनहित याचिका तक दायर हो गई। अन्ना का राजनीतिक और सामाजिक जीवन भले ही कुछ रहा हो लेकिन मैं अन्ना को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने का एक माध्यम मानता हूं। जिस देश में हम पत्थर की मूर्ति को भगवान मानकर पूज लेते हैं वहां अन्ना जैसे लोगों की आरती उतारकर मीडिया ने गलत नहीं किया। अब अन्ना तो आकर चले गए लेकिन क्या भ्रष्टाचार खत्म होने का सिलसिला शुरू हो गया। जवाब आप स्वयं दे सकते हैं। वैसे मैं यहां इक्का दुक्का उदाहरण के रूप में बताना चाहूंगा कि अन्ना जैसे लोगों पर आरोप लगने का सिलसिला क्यों शुरू होता है। क्यों हम उनके सकारात्मक पक्ष को देखने के बजाय हर तरफ से घेरने का प्रयत्न करते रहते हैं। पहला उदाहरण अन्ना के आंदोलन से उपजी राजनीति का है। ऐसे लोगों ने अन्ना का नाम लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकनी शुरू कर दी है। बात भ्रष्टाचार की और बात स्वयं के स्वार्थ की।
पहला उदाहरण
पिछले दिनों हमारे शहर बीकानेर में किरीट सौमेया आए। किरीट सौमेया भारतीय जनता पार्टी के राष्ट़ीय सचिव है और महाराष्ट के आदर्श घोटाला काण्ड का खुलासा करने का दम भरते हैं। वो राजस्थान में भाजपा के सह प्रभारी भी है। सौमेया ने यहां मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ भ्रष्टाचार का बिगुल बजाया है। अपने भाषण में अन्ना का जिक्र करने वाले सौमेया ने भ्रष्टाचार से जुडे कागजातों को मीडिया के समक्ष पेश किया। आधे अधूरे कागज दिए ताकि सारा मामला एक साथ मीडिया के सामने नहीं आए। बार बार वो मीडिया को बताए और बार बार मीडिया उन्हें हीरो बनाए। निश्चित रूप से ऐसे में उद़देश्य भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि अपनी और पार्टी की मार्केटिंग करना है। उन्होंने अशोक गहलोत के उस पत्र को सार्वजनिक किया जिसमें उन्होंने मफतराज पी मुनोत को अपना साथी बताया है। सौमेया ने इस पत्र को भी कांटछांट कर पेश किया। पत्र जिस व्यक्ति को लिखा गया, उसका नाम छिपाया गया। चार में से दो पृष्ठ ही मीडिया को दिए। बताया गया कि शेष बातें बाद में बताई जाएगी। ऐसे में साफ है कि सौमेया मीडिया को भ्रष्टाचार के नाम पर अपनी सीढी बनाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। खैर इसके बाद सौमेया बीकानेर से जयपुर के लिए रवाना हुए। वो जिस शख्स की गाड़ी में बीकानेर से रवाना हुए थे वो भी ऐसे व्यक्ति की थी, जो न सिर्फ भ्रष्टाचार बल्कि कालाबाजारी और मिलावट के मामले में आरोपी है। ऐसे में सौमेया को अन्ना जैसे शख्स का नाम लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने का अधिकार नहीं है।
मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए सरकार को अभियान चलाना होगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बिल्कुल साफ कहा था कि चोर कहां है यह थानेदार को पता है। पुलिस के कौन से नाके पर सुविधा शुल्क वसूला जा रहा है, कौन से थाने में कितने रुपए की बंदी है, कौन लोग किस अपराध में जुड़े हैं, यह सब पुलिस की जानकारी में है। इसके बाद भी कार्रवाई के नाम पर शून्य है। दरअसल, भ्रष्टाचार की जड़े इतनी पैठ जमा चुकी है कि उसे निकाल बाहर करना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन हो गया है। सिर्फ लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार रुक जाएगा, मुझे नहीं लगता। हां, कुछ असर जरूर पड़ेगा। सूचना का अधिकार आया तो लोग फाइल में गड़बड़ करने से पहले सोचने लगे। उसके नए तरीके जरूर इजाद हो गए लेकिन हल्का अंकुश लगा। इसी तरह लोक पाल विधेयक से भी पूरी तरह भ्रष्टाचार का अंत नहीं होगा। यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि भ्रष्टाचार सामाजिक बुराई न बने। अपने परिजन का इलाज कराने के लिए डॉक्टर के घर हजारों रुपए पहुंचाने वाला ऑपरेशन के बाद अगर भ्रष्टाचार की बात करता है या सार्वजनिक रूप से आरोप लगाता है तो गलत है। वो स्वयं उस भ्रष्टाचार का हिस्सा बन गया। अपना तो इतना ही कहना है स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त कर लो। देश अपने आप हो जाएगा। अंत में बहन अनामिका थानवी से मिली कुछ पंक्तियां प्रेषित है
रहो जमीं पे मगर आसमां का ख्वाब रखो
तुम अपनी सोच को हर वक्त लाजवाब रखो
...खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी
तुम अपने हाथ में किरदार की किताब रखो
उभर रहा जो सूरज तो धूप निकलेगी
उजालों में रहो मत धुंध का हिसाब रखो
मिले तो ऐसे कि कोई न भूल पाये तुम्हें
महक वफा की रखो और बेहिसाब रखो....
Monday, March 28, 2011
मैं राजस्थानी या बिहारी ?
पिछले कुछ दिनों से मन में एक सवाल उठ रहा है कि मैं राजस्थानी हूं या बिहारी। कुछ समय पहले तक जो खबरें बिहार से आ रही थी, अचानक उनकी डेटलाइन बदलकर राजस्थान हो गई है। सरे राह और दिन दहाड़े हत्या जैसे मामले तो बिहार में ही सुनने को मिलते थे। अब वो सब राजस्थान में हो रहा है, जिसके कारण कभी बिहार बदनाम हुआ था। बीकानेर में एक युवक कांग्रेस नेता को दिन दहाडे चार जनों ने गोली मार दी। हत्यारे गिरफ़तार हो गए लेकिन व्यवस्था पर एक दाग हमेशा के लिए लग गया। कुछ दिन बाद ही किशनगढ़ अजमेर में एक विधायक के बेटे को गोली मार दी गई। हत्यारों की धरपकड़ हो रही है। यह मामला अभी निपटा ही नहीं कि एक युवक ने स्वयं को आग लगाकर टंकी से कूद कर जान दे दी। आक्रोशित भीड़ ने वहां खड़े पुलिस निरीक्षक को जिंदा ही जला दिया। अब आप ही बताएं कि यह सब राजस्थान में पहले कब हुआ। 24 फरवरी को बीकानेर में युवक कांग्रेस नेता की हत्या हुई और उसके बाद ठीक एक महीने में यह चारों घटनाएं हुई। मामला सिर्फ अपराध तक सीमित होता तो मान लेते कि बड़े शहरों की तर्ज पर जमीनों के विवाद या आपसी रंजिश में ऐसा हो जाता है। 28 मार्च को सवाई माधोपुर में ही जो कुछ हुआ उसने तो पूरे प्रदेश का ही नाम शर्म से नीचे कर दिया। जिस राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर को देशभर में श्रेष्ठ माना जाता था, उसी के केंद्र पर उत्तर पुस्तिकाओं को रात के अंधेरे में बदलने की काली करतूत सामने आई। इस घटना ने साफ कर दिया कि प्रदेश का आपराधिक बढ़ रहा है और व्यवस्था के चारों सिरों की चरमराहट बढ़ गई है। कभी भी टूटकर गिरने का डर सता रहा है तोयह गलत नहीं है।
मैं यहां अपने प्रदेश की तुलना बिहार से कर रहा हूं तो उसका एक और कारण राजनीतिक भी है। आपको याद होगा कि बिहार में बड़े नेताओं के बीच वाक युद़ध बढ़ता ही गया था। बाद में तो एक दूसरे को सार्वजनिक तौर पर गाली गलौच की स्थिति आ गई थी। राजस्थान की राजनीति में भी यह वायरस घुस चुका है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच चल रहा वाक युद़ध निश्चित रूप से किसी सुखद अंत की तरफ नहीं ले जा रहा है। जब मुद़दों पर चिंतन की शक्ति खत्म हो जाती है, आम अवाम के बारे में सोचने का समय नहीं होता और सत्ता प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य हो तो निश्चित रूप से ऐसे ही वचन सामने आते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के राजस्थान में फिर से सक्रिय होने के बाद तो जैसे कांग्रेस सरकार पूरी तरह भयभीत हो गई है। हर मुद़दे पर कांग्रेस सिर्फ वसुंधरा को ही निशाना बना रही है। विधानसभा में कुत्ते की मौत पर बहस और बाद में सत्ता पक्ष की तरफ से हो हल्ला करने वाले दिन बुरे ही कहे जाएंगे। शायद बिहार की विधानसभा में जुतमपैजार से पहले ऐसे ही हालात रहे होंगे। इस बार मुझे भी दो दिन विधानसभा की प्रेस दीर्घा में बैठने का अवसर मिला। सोचा था कुछ बहस सुनने को मिलेगी लेकिन मैंने जो देखा वो साथी पत्रकारों ने शायद पहले नहीं देखा। पहला अवसर था कि सत्ता पक्ष के मंत्री ही खड़े होकर हो हल्ला कर रहे थे। जिस प्रतिनिधि पर विधायकों को शांत करने और सदन की कार्रवाई को संतुलित तरीके से संचालित करने का जिम्मा है, वही हो हल्ले के इशारे कर रहे थे। गृहमंत्री स्वयं हो हल्ले में शामिल थे। यह भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि वो स्वयं मुखिया थे। भाजपा की भूमिका भी सकारात्मक नहीं रही। वो चाहतीतो सदन चल सकता था। तीन दर्जन विधेयक पारित हो गए, विपक्ष चुपचुपा बैठा रहा। बहस के लिए विधानसभा अध्यक्ष आवाज देते रहे लेकिन कोई बोलने के लिए आगे नहीं आया। हां पक्ष जीता, हां पक्ष जीता की आवाज के साथ विधेयक बिना किसी बहस के पारित हो गए। निश्चित रूप से भाजपा नेता बोलते तो कांग्रेसी हल्ला करते लेकिन पूरी तरह हथियार डालने की भाजपाई नीति कम से कम मुझे तो रास नहीं आई।
प्रदेश में दो नेताओं पर सदन को चलाने की जिम्मेदारी है तो राज्य के विकास का जिम्मा भी उन्हीं के हाथ में है। गहलोत और राजे मिलकर अगर सदन चलाने की कोशिश करते तो शायद उन मुद़दों पर भी सदन में बहस हो जाती, जिसके लिए अरबों रुपए खर्च करके 200 जनों को सदन में भेजा गया था। ऐसे नेताओं का क्या हश्र होना चाहिए जिन्होंने सदन को चलाने के बजाय अनिश्चितकाल स्थगित का मार्ग प्रशस्त किया। उन विधायकों का क्या हो, जिनके लिए सदन में पार्टी बड़ी हो गई और करोड़ों लोगों की भावनाएं दो टके की रह गई। अगर सदन में ऐसा होता रहा तो निश्चित रूप से प्रदेश में हत्या, लूट और उत्तर पुस्तिकाओं को बदलने जैसी घटनाएं होती रहेगी। आज बिहार विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है, कल तक मुझे अपने प्रदेश को देखकर संतोष था लेकिन आज मुझे बिहार से ईर्ष्या हो रही है। काश मैं बिहारी होता। देरी से ही सही विकास के बारे में सोचता तो सही।
Subscribe to:
Posts (Atom)