आज जब समूचा मीडिया भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष की नींव रखने में जुटा है। ऐसे में पाकिस्तानी पत्रकारों को मित्र कहना शायद कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगे। पिछले कुछ दिनों से सोच रहा था कि इस मुद़दे पर ब्लॉग पर लिखूं या नहीं। फिर सोचा अपना विचार तो रखना ही चाहिए। इसीलिए मैं पाकिस्तानी पत्रकारों के साथ गुजारे छह दिन की यात्रा आपके साथ लगातार छह दिन ही बांटना चाहूंगा।
सितम्बर 2006 में मुझे अपने समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका के माध्यम से नेपाल के काठमांडू में आयोजित छह दिवसीय कार्यशाला में हिस्सा लेने का अवसर मिला। इस कार्यशाला में भारत और पाकिस्तान से छह छह पत्रकारों को आमंत्रित किया गया था। विशेष बात यह थी कि दोनों ही देशों के भारत सीमा के निकटवर्ती रहने वाले लोगों को पेनॉस साउथ एशिया नामक इस संस्थान ने आमंत्रित किया था। पाकिस्तान के सीमावर्ती भारत के बीकानेर में रहने का लाभ मुझे मिला। भारत से मेरे साथ चण्डीगढ की कंचन वासदेव, गुजरात के उर्वेश कोठारी, कश्मीर टाइम्स के अरुण शर्मा, हैडलाइन टूडे के सक्का जैकब भी थे। इसके अलावा जी न्यूज के पत्रकार राहुल सिन्हा का भी चयन हुआ लेकिन वो आये नहीं। वहां हमें काठमांडू के होटल हिमालय में आवास की सुविधा दी गई। यह लगभग फाइव स्टार होटल था और इसे देखकर नहीं लगता था कि नेपाल छोटा देश है और यहां सुविधाएं नहीं है। खैर होटल हमारा विषय नहीं है। हम पाकिस्तानी पत्रकारों से पहले ही नेपाल पहुंच गए थे, इसलिए पहले हमें होटल पहुंचने का अवसर मिला। ऐसे में सभी भारतीय पत्रकारों के नाम से एक एक कमरा आवंटित हो गया। कुछ ही देर में पाकिस्तानी पत्रकार भी वहां पहुंच गए। अभी हम अपने अपने कमरे में सामान रखकर बतिया रहे थे कि रिसेप्शन से फोन आया कि पाकिस्तानी पत्रकार भी आपके साथ ही रहेंगे। यानि एक कमरे में एक भारतीय और एक पाकिस्तानी पत्रकार छह दिन तक साथ साथ रहेंगे। मैं और मेरे साथी चकित थे। हमने रिसेप्शन पर पहुंचकर इसका विरोध किया। हमें पाकिस्तानी शब्द ही अच्छा नहीं लग रहा था ऐसे में उनके साथ छह दिन रहना, हमारे लिए मानों कोई अत्याचार था। रिसेप्शन पर पहुंचने पर पता चला कि जिस संस्था ने हमें यहां आमंत्रित किया है, उसी के संचालकों ने यह व्यवस्था की है। उन्हीं में से एक डैनी से हमने बातचीत की। उन्होंने बताया कि दोनों देशों के पत्रकार साथ रहेंगे तभी तो एक दूसरे को समझेंगे, एक दूसरे की समस्या को समझ सकेंगे। हमने जैसे तैसे भारी मन से पाकिस्तानी पत्रकारों के साथ रहने की स्वीकृति दे दी। अब मेरे साथ एक पाकिस्तानी पत्रकार अशफाक को मेरे साथ जोडा गया। अशफाक वहां के दैनिक समाचार पत्र डॉन से जुडा हुआ था। हमारे साथ पाकिस्तान की पत्रकार बतुल फातमा भी थे जो आजकल पाकिस्तान में असिस्टेंट ऑडिट जनरल है। यानि अब पत्रकार नहीं बल्कि पाकिस्तानी ब्यूरोक्रेट है। छह दिन तक हम लोगों ने एक दूसरे को समझा। एक दूसरे के साथ घूमे, मौज मस्ती की। अपने मन में पाकिस्तान के बारे में जो सवाल थे वो सब किए। इतने किए कि पाकिस्तानी मित्र भी बोल देते यार आप पाकिस्तान के बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं। हमार सवाल होता कि आप भारत के बारे में क्यों सोचते हैं? हमारी बातों में कभी अमिताभ बच्चन होते तो कभी शोएब अख्तर और मियादाद। कभी पाकिस्तान के मंदिरों पर चर्चा होती कभी कभी भारत की मस्जिदों पर। कभी गाय की पूजा पर चर्चा होती कभी पाकिस्तान में गायों के वध पर। बहुत बातें हुई, कुछ सलवट कम हुई तो कुछ बढी। जैसा भी छह दिन का सफर रहा, वैसा ही आपके साथ बाटूंगा। बस हर रोज हमें याद करते रहिए।