बात से मन हल्‍का होता है

Wednesday, February 11, 2009

गिलहरी और मैं


घटना बहुत पुरानी है, लेकिन मन मस्तिष्‍क पर ठीक वैसे ही टिकी हुई है, जैसे कुछ समय पहले की है। घटना को याद करके सिहर जाता हूं, घबरा जाता हूं, मन झकझौरने लगता है, जीवन का अर्थ अनर्थ लगता है, अकेले में बैठे ऐसे ही कुछ ख्‍याल अंदर तक भय के लिए स्‍थान बना देते हैं। निश्‍चित  रूप से यह घटना नवम्‍बर 2004 से पहले की है। मैं और मेरी पत्‍नी दीपावली से पहले कुछ खरीदारी करने के लिए घर से रवाना हुए। मेरा शहर बिल्‍कुल अजब गजब है। शहर के ठीक बीच में से रेलवे लाइन गुजरती है। कुछ देर के लिए शहर आधा आधा हो जाता है, रेल गुजरती है और क्रासिंग खुलते हैं तभी शहर का फिर से मिलन होता है। उस दिन भी हम कोटगेट से निकले ही थे कि कुछ फर्लांग दूर स्थित क्रासिंग देखते ही देखते बंद हो गया। भारी भीड के बीच मैं भी क्रासिंग पर ही रुक गया। पत्‍नी पीछे बैठी सामान खरीद का लेखा जोखा मन ही मन तैयार कर रही थी। मैं उससे कुछ कहता उससे पहले उसने मोटर साइकिलों की भीड के बीच दौडती गिलहरी की तरफ कर दिया। सूर्ख सफेद रंग की वो गिलहरी कभी इधर तो कभी उधर उछल कूद कर रही थी। रास्‍ते में खडे होने की तकलीफ और क्रासिंग के दर्द को इस गिलहरी की कलाबाजियों ने काफूर कर दिया। गिलहरी ही थी जो क्रासिंग के इधर और उधर खडे अनजान लोगों के बीच कौतूहल का विषय बन गई। वो इतनी मस्‍ती से अपना समय गुजार रही थी, मानो आज जितनी खुश कभी नहीं हुई। उसकी खुशी का परवान ही था कि वो मोटर साइकिल के चक्‍कों के बीच में से निकल कर इधर उधर कूद रही थी। वहां खडे लोगों के बीच उसने अपना अनाम रिश्‍ता कायम कर लिया। आमतौर पर घबराने वाली महिलाएं भी उसके साथ हो ली। किसी को घर जल्‍दी पहुंचना था तो किसी को कार्यालय, किसी को बच्‍चे की चिंता रही होगी तो किसी को कुछ और लेकिन इस गिलहरी ने हर चिंता को दूर कर दिया। हर कोई उसी की मस्‍ती में खो गया। रोते बच्‍चे को मां ने गिलहरी दिखाई तो लाडला भी हंस पडा। पहली बार देखा कि इंसान को सर्कस के बाहर भी कोई गैर इंसान हंसा सकता है,  ऊर्जावान कर सकता है। अभी गिलहरी की उछलकूद चल रही थी और लोगों के साथ ठिठोली करने का सिलसिला परवान चढ ही रहा था कि धडधडाती रेल गाडी पहुंच गई। गिलहारी क्रासिंग के एक सिरे से दूसरे सिरे की ओर आ ही रही थी कि रेल गाडी ने  उसे अपनी चपेट में ले लिया। पलक झपकने से भी कम समय पहले जो गिलहारी सभी की आंखों को सुहा रही थी, हंसा रही थी, रोमांचित कर रही थी, उसे रेल के निर्दयी पहियों ने अपनी चपेट में लेकर ऐसा मारा कि शरीर पापड हो गया। दृश्‍य बदल गया था इंसान अपनी औकात  पर आ गया था, जिस गिलहरी को दिखाकर मां बच्‍चे को हंसा रही थी, उसी अबोध बच्‍चे ने अंगुली से इशारा करके गिलहारी की दशा मां को दिखाई तो मां ने बच्‍चे की आंखें बंद कर दी। दूसरे हाथ को नाक पर रख दिया। हंसते हंसते क्रासिंग पर दस पंद्रह मिनट गुजारने वाले उसी गिलहारी के शरीर के ऊपर से अपनी गाडी निकालकर चल दिए। न संवेदना थी, न दर्द। जब तक वो जीवित थी, इंसान से रिश्‍ता था लेकिन काल कवलित हो गई तो इंसान पराया हो गया। यह भी कहा जा सकता है सांस हैं तब तक संबंध है और सांसों की डोर के साथ ही संबंध खत्‍म हो जाते हैं। पता नहीं रिश्‍ता कब बनता है और कब टूट जाता है। अपनी तीन दशक की जिंदगी में मैंने रिश्‍तों को बनते बिगडते और फिर बनते देखा है।