बात से मन हल्‍का होता है

Saturday, January 31, 2009

मीडिया पर छींटाकशी क्‍यों ?

पिछले कुछ दिनों से ब्‍लॉग पर देख रहा हूं कि मीडिया पर जमकर छींटाकशी हो रही है। जिसके जो मन में आया उसी ने मीडिया को बीच में लिया और दो तीन बातें बोलकर अपना गला साफ कर लिया या फिर की बोर्ड पर धना धन जोर मारकर गुस्‍सा उतार लिया। हर मुद़दे के अंत में मीडिया को दोषी बताकर हर कोई किनारा कर लेता है। आश्‍चर्य की बात है कि जो जनता मीडिया को मुद़दा उठाने के लिए प्रेरित करती है, वह भी अंत में मीडिया पर अपना ही गुस्‍सा उतारती है। अपनी बात रखना अनुचित  तो नहीं है लेकिन आंख बंद करके एक पक्ष की बात करना शायद ठीक नहीं। बात भारत पाकिस्‍तान के बीच  तनाव की हो या फिर किसी दूसरे मामले की। अंत में नेता, अधिकारी और अब जनता तक यह बोलकर सारे मामले पर पानी फेर देते हैं कि यह सब मीडिया का करा धरा है। जब से मुम्‍बई में हमला हुआ है तब से आखिर किस नेता ने अनवरत पाकिस्‍तान के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है, आखिर किस पार्टी ने पाकिस्‍तान के खिलाफ युद्व को अपना चुनावी घोषणा पत्र का हिस्‍सा बताया है, किस व्‍यक्ति ने पाकिस्‍तान पर युद्व नहीं होने तक अनशन की चेतावनी दी है, किस अधिकारी ने आतंकवाद को खत्‍म करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने की तैयारी कर ली है। मैं मानता हूं कि अगर आतंकवाद से कोई लड रहा तो पहला सेना का जवान,  दूसरा पुलिस का जांबाज और तीसरा मीडिया। आम आदमी इस पीडा को सहन कर रहा है लेकिन बोलने के लिए तैयार नहीं है। सेना पर खडा जवान हर वक्‍त जान हथेली पर लेकर घुसपैठ रोकने की कवायद में जुटा है, हेमंत करकरे जैसे पुलिस के जाबांज जान तक दे देते हैं और बाद में लोग इसे शहादत तक मानने को तैयार नहीं होते। मुम्‍बई हमले के बाद से अब तक देशभर में हजारों कार्यक्रम हो गए, श्रद्वांजलि सभाएं हो गई, लाखों लोगों ने इसमें हिस्‍सा लिया लेकिन क्‍या किसी ने अपने बेटे को सेना में भर्ती करने का मानस बनाया, क्‍या किसी ने अपनी आंखों के तारे को देश रक्षा के लिए समर्पित करने का दायित्‍व निभाया। देखने में आया है कि लोग जब भी मौका पडता है अपना गला साफ करने के लिए कुछ भी बोल देते हैं। कुछ ऐसे ही कोपभाजन का शिकार बेचारा मीडिया भी होता है। मेरी नजर में मीडिया की स्थिति उस धोबी जैसी हो गई है जो गधे पर चढे तो भी बुरा कहा जाए और उतर जाए तो मूर्ख माना जाए। मुम्‍बई हमले के बाद से अब तक लगातार कुछ टीवी चैनल पाकिस्‍तान के खिलाफ सबूत प्रस्‍तुत कर रहे हैं, अनेक समाचार पत्र इस मामले को प्रथम पृष्‍ठ पर प्रकाशित कर रहे हैं। अपने मैगजीन में इस मामले को काफी शिद़दत के साथ उठा रहे हैं। इसके बाद भी कुछ लोगों ने यहां तक बोल दिया कि भारत पाक संबंधों में मीडिया की भूमिका ठीक नहीं है। पाकिस्‍तान की एक महिला पत्रकार ने तो यहां तक लिख दिया कि भारत के अपरिपक्‍व पत्रकार संबंधों को खराब करने में लगे हैं। क्‍या पाकिस्‍तान से  प्रसारित हो रहे सभी समाचारों में भारत को 'माता' बोलकर संबोधित किया जा रहा है। क्‍या कसाब के बारे में एक'एक हकीकत बनाना अपरिपक्‍वता है, क्‍या पाकिस्‍तान को सुबूत गिनाना अपरिपक्‍वता है, क्‍या पाकिस्‍तान में आतंककारी संगठनों की बढती शक्ति को दुनिया के सामने रखना अपरिपक्‍वता है। दुख इस बात है कि देश के नेता भी यह कहने से नहीं चूकते कि युद्व तो मीडिया में हो रहा है। जमीन पर ऐसा कुछ नहीं है। शर्म आती है ऐसे नेताओं की जो पाकिस्‍तान को जबानी कुछ कहने में भी संकोच करते हैं, शर्म आती है ऐसे नेताओं कि जो भारत की तरफ गुर्रा रहे लोगों के मुंह पर हाथ रखने की जुर्रत कर रहे हैं। आखिर क्‍यों हम पाकिस्‍तान के खिलाफ बोलने में ही संकोच कर रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री या फिर रक्षा मंत्री थोडा सा बोलकर ही अपना गुस्‍सा दिखाते हैं तो मीडिया उसे शानदार तरीके से उठाता है ताकि द‍ुनिया को लगे कि भारत अब आतंक सहन करने वाला नहीं है। हां कुछ मीडियाकर्मी अपने दायित्‍व को भूलकर किसी मुद़दे को ज्‍यादा बढावा दे रहे होंगे, लेकिन पाकिस्‍तान के खिलाफ बोल रहे मीडिया पर किसी की विपरीत टिप्‍पणी मेरी नजर में उचित नहीं है। कम से कम जो बोल रहा है उसे तो बोलने दें। ब्‍लॉग की दुनिया तो और भी शानदार काम किया कि अब प्रिंट और इलेक्‍टानिक मीडिया को ही आमने सामने कर दिया। अरे भई आपके ब्‍लॉग पर वैसे ही खूब हिट हो जाएगी। इन भाईयों को लडाने का काम तो मत करो।