Wednesday, December 8, 2010
कुछ तो बोल मन के मोहन
अरे मन के मोहन कुछ तो बोल या सिर्फ देखता ही रहेगा। पीठ थपथपाता रहेगा। मैडम को सेल्यूट मारता रहेगा। तेरी सादगी, तेरा भोलापन एक बार फिर पुराने दिनों की याद दिला रहा है। जब हमारे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी हुआ करते थे। वो खुद बोलते तब तक पीछे वाले काम कर जाते। कुछ ऐसा ही इन दिनों हो रहा है, प्रधानमंत्री जी कुछ कहें उससे पहले काम निपट चुका होता है। 2जी स्पेक्टम घोटाले के बारे में पिछले कई दिनों से छप रहा है, प्रसारित हो रहा है। मन में प्रधानमंत्री की अच्छी छवि है इसलिए मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि उन्होंने कोई गड़बड़ की होगी। लेकिन अब तो अति हो गई। प्रधानमंत्री जी कुछ बोल नहीं रहे और देश है कि शांत नहीं हो रहा। भले ही मीडिया में दाग लगे लेकिन किसी भी मीडिया ने इसे बोफोर्स से कम कवरेज नहीं दी। हर रोज नया तथ्य उजागर हो रहा है, कभी फोन टेप छप रहे हैं तो कहीं वर्ष 2008 में स्पेक्टम लाइसेंस के लिए लगी कतार की फोटो छप रही है। सवाल यह है कि अगर देश में कुछ भी गड़बड़ नहीं हुई तो प्रधानमंत्री इस मामले में शांत क्यों है। सवाल यह भी है कि इतने बड़े मामले में देश का विपक्ष के वो तेवर क्यों नहीं है जो बोफोर्स के जमाने में हुआ करते थे। मुझे याद है तब बीकानेर के मोहता चौक में एक पोस्टर चिपका हुआ था। राजीव गांधी का बड़ा मासूम सा फोटो था और नीचे बहुत ही शायराना अंदाज में लिखा था ''होठों पर जो लाली है, ये बोफोर्स की दलाली है।'' आज ऐसा कुछ नहीं है। भ्रष्टाचारियों के खिलाफ बयान देकर विपक्ष किनारे हो गया है और समूची सरकार अपना मुंह सिलकर समय को गुजरने दे रही है ताकि धीरे धीरे यह बात भी ठण्डी पड़ जाए। इस बार ऐसा होता नहीं दिख रहा कि आग का गुबार उठे और धीरे धीरे ठण्डा हो जाए। मामला मीडिया पर भी उठा है, इसलिए हर कोई जमकर इस पर टिप्पणी कर रहा है। मुझे एक साथी ने एसएमएस किया कि राडिया और वीर संघवी जैसे पत्रकारों के इस मामले में सामने आने से साफ हो गया कि मीडिया भी भ्रष्ट है। उक्त मित्र एक सांसद के निजी सचिव भी है। मैंने उन्हें एसएमएस किया कि राजा भ्रष्ट है तो क्या देश के सभी नेता भ्रष्ट है। काफी देर बात उनका जवाब आया ''नाइदर ओर नोर'' मैंने वापस कहा रिप्लाई किया कि भाई फिर सारी मीडिया दोषी कैसे हो गई। खैर। बात यह माननी पड़ेगी कि इस मुद़दे पर विपक्ष जितना तेवर नहीं दिखा रहा है, उससे कहीं अधिक तो मीडिया ही बोल रहा है। आज ही राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ पर वरिष्ठ पत्रकार एस: गुरुमूर्ति ने समूचे घटनाक्रम को सिलेसिलेवार स्पष्ट किया है। चैनल की भूख भी इन दिनों इसी समाचार से पूरी हो रही है। इतना ही नहीं कुछ चैनल ने तो बकायदा पत्रकारों को एक मंच पर बुलाकर बहस करवाई है। मेरा तो मानना है कि इस मुद़दे पर जितनी सरकार दोषी है, उससे कहीं अधिक विपक्ष कमजोर है। क्या कारण है कि गडकरी अपने बेटे की शादी में करोड़ों रुपए खर्च करके सादगी की सलाह दे रहे हैं और 2जी स्पेक्टम जैसे मुद़दे पर उनकी पार्टी अखबारों में विज्ञप्ति भेजने के अलावा कोई काम नहीं कर रही। बोफोर्स के तब और 2जी के अब में इतना अंतर आ गया कि पार्टियां अपना धर्म ही भूल गई। क्यों नहीं सरकार के खिलाफ इतनी लामबंदी होती कि प्रधानमंत्री तक पर त्यागपत्र का दबाव बनता। करोड़ों रुपए को हेरफेर हुआ और कॉमनवेल्ट के ''हीरो'' कलमाड़ी की फिल्म डिब्बे में बंद हो गई। अब अरबों रुपयों का घोटाला हो गया और सब कुछ शांत होने का माहौल बन रहा है। इस देश की जनता के पास दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के बीच इतना समय नहीं है कि वो सड़क पर खड़ी होकर सरकार से त्यागपत्र मांगे। यह काम तो विपक्ष को ही करना होगा। जनता तो मौका आने पर पक्ष और विपक्ष दोनों का हिसाब कर देगी। दोनों में कम निकम्मे को चुनने का विकल्प ही जनता के पास बचा रहेगा। पक्ष और विपक्ष को भी अब स्वयं को कम निकम्मा होने का सबूत देना होगा।
Sunday, November 7, 2010
स्वागत है ओबामा
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट़पति बराक ओबामा इन दिनों भारत की यात्रा पर है। इस यात्रा के मायने तलाशने शुरू किए तो शुरू से अंत तक भारत के लिए सब कुछ सुखद ही सुखद है। हां, लाभदायी कुछ भी नहीं है। बहुत ही स्पष्ट है कि ओबामा इस बार अपने देश के खातिर हमारी शरण में आए हैं। वो चाहते हैं कि भारत उनके साथ कुछ ऐसी डील करे कि अमरीकी नागरिकों को कुछ रोजगार मिल जाए। अगर ओबामा अपने देश के लिए इतना सोचते हैं तो कतई गलत नहीं है। अमरीकी संसद अपनी बिगड़ती स्थिति को संभालने के लिए ओबामा को यह करना भी चाहिए। राजनीतिक रूप से भी और अपने देश के राष्ट़पति होने के कारण भी। वो अपनी जिम्मेदारी को बखुबी निभा रहे हैं। मेरा मानना है कि अब विचार तो भारत को करना है। जहां तक मेरी सोच और यादशास्त है, पहला अवसर है जब अमरीकी राष्टपति हमारे देश में कुछ मांगने के लिए आए हैं और वो भी घोषित रूप से। पहले भी बहुत कुछ अमरीकी हमारे से लेते रहे हैं और हम देते रहे हैं। लेकिन इस बार मामला अलग है। वो चाहते हैं कि हम उनसे बीस तरह की डील करें। अब सोचने की बारी हिन्दुस्तान की है। भारतीय विदेश नीति को यह विचार करना होगा कि हम महाशक्ति के रूप में उभरते हुए देश हैं और दुनिया में अपने वर्चस्व से किनारे हो रहे अमरीका के साथ हमारा बर्ताव कैसा होना चाहिए। हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारत डील तो करें लेकिन उसमें भारतीयों के बारे में जरूर सोचें। कुछ महीने पहले ही अमरीकी रक्षा मंत्री ने भारत यात्रा करके हमें हथियार सप्लाई करने की डील की थी। एक बार फिर ओबामा हथियारों का बाजार भारत में ढूंढ रहे हैं। अब यह मुद़दा तो उठना ही चाहिए कि अमरीका पहले पाकिस्तान को हथियार देना बंद करें। ताकि एशिया के इस बडे हिस्से पर शांति कायम रह सके। यह भी तय किया जाए कि भारत के जो युवा अमरीका में काम कर रहे हैं, उनके हित पूरे होते रहे, काम के बराबर उन्हें अमरीका में सहयोग मिलता रहे। भारत अगर अमरीका के लिए निवेश करे तो अमरीका में भारतीय परचम कायम रहना चाहिए। चीन को चुनौती देने के लिए भारत को अमरीका के साथ मिलकर काम करना होगा। यह सही भी है क्योंकि भारत और अमरीका अगर साथ मिलते हैं तो दुनिया की कोई भी शक्ति हमें अंगुली नहीं दिखा सकती। फिर भले ही वो चीन ही क्यों न हो। अमरीकी चीन विरोधी नीति में भारत के लिए सदाशयता होनी चाहिए। कुछ ऐसी डील भारत को रखनी होगी कि अमरीका अपने हित भले ही साधे लेकिन भारत और भारत के नागरिकों के हितों पर कुठाराघात नहीं हो। हमें यह चिंता नहीं कि अमरीका हमारे से क्या ले रहा है, बल्कि यह सोच है कि हमारे से कमाया गया धन वो पाकिस्तान और चीन जैसे देशों के साथ न बांट लें जो हमारी जान के दुश्मन बने हुए हैं।
मेरा मानना है कि ओबामा की भारत यात्रा हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की जीत का परिणाम है। अमरीका को आर्थ्कि संकट से उबरने के लिए अगर भारत से सहयोग मांगना पड़े तो भारतीय जनता को समझ जाना चाहिए कि हमारे देश की स्थिति इतनी भी बुरी नहीं है कि हम हर वक्त अपने राजनेताओं को कोसते रहें। अमरीका में सरकार फेल हो रही है लेकिन देश की जनता स्वयं को उबारने में लगी है। हमें भी यह सोच कायम करना होगा कि देश को आर्थिक रूप से इतना सुद़ृढ करें कि भारत सरकार अपने उद़देश्य में सफल हो जाए। दुनियाभर में चल रही शीर्षता की प्रतिद्वंद्विता में भारत भी एक विकल्प के रूप में विकसित हो चुका है, अब तो बारी हिन्दुस्तानियों की है जो यह साबित करें कि हमारे से श्रेष्ठ कोई नहीं।
Monday, July 26, 2010
मेरी गुरुदेव
मेरे गुरुदेव, कल गुरुपूर्णिमा थी और मैंने आपको दिनभर याद किया। चिंतन किया कि आपको फोन करके वंदन करुं या आप के बारे में फिर से चिंतन करूं। सुबह से टीवी चैनल पर देख रहा था और खुद भी अपने चैनल पर सैकडों लोगों को गुरुवंदना करते देख रहा था, अधिकांश गुरु तो साधु संत थे। आज के युग में अगर यही गुरु है तो असली गुरु कौन है। जिनसे सीखा वो गुरु नहीं हैं, मैं तो अपने उसी गुरु को याद कर रहा था, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उनसे मैंने जीना सीखा, उनसे ही लिखना सीखा, उनके दम पर ही दुनिया में बोलना सीखा, दुनिया को समझना सीखा। आज जब मैं उन्हीं के बताए मार्ग पर लिख रहा हूं, बोल रहा हूं, सुन रहा हूं, सुना रहा हूं, सोच रहा हूं, लोगों को सोचने पर मजबूर कर रहा हूं, तब अफसोस मेरे गुरु मेरे साथ नहीं है। मैं तो दिनभर उन्हीं को याद करता रहा। मैं अपने एक गुरु के बारे में यहां बताना चाहूंगा। नाम था शारदा भटनागर। मुझे वो दिन याद है जो आज से करीब करीब तीस वर्ष पहले का हैं, यानि जब मैं पांच सात वर्ष का था। मेरी स्मृति में फिर भी है। मैं अपने स्कूल के मंच पर खडा भाषण बोल रहा था, सब सुन रहे थे, सभी मेरी ओर उत्सुकता से देख रहे थे कि इतना सा बच्चा कैसे इतना अच्छा बोल रहा हैं, तभी अचानक मैं बीच में अटक गया, वहीं कुछ खटक गया। मैंने मंच से ही जोर से आवाज लगाई 'दीदी, ये क्या लिखा है, समझ नहीं आ रहा" दीदी मेरे पास आई और बतादी कि क्या लिखा है। मैंने फिर से भाषण देना शुरू कर दिया। स्कूल पांचवी के बाद बदल गया, मैं बडा हो गया। मैं उन दीदी के बारे में कोई विशेष चिंता नहीं कर पाता था। झूठी भागमभाग में अपनी दीदी को याद नहीं कर पाता। लेकिन दीदी थी कि हर साल मुझे एक बार तो फोन करती ही करती। कभी स्कूल की दुर्दुशा के बारे में बताती तो कभी मेरे हाल पूछती। जीवन जब कोई बडा संकट आया तो उसी गुरु ने मुझे फोन करके सांत्वना दी, सब कुछ सुधरने का विश्वास जगाया, उनका विश्वास आज हकीकत में भी बदल गया। वो मुझे फिर याद करती, मैं उनको भूलता रहा। वो बीमार रही मुझे पता तक न चला, वो दुनिया से विदा हो गई, मुझे अपने ही अखबार में एक दिन बाद छपे विज्ञापन से पता चला। मेरी झूठी भागमभाग देखों कि मैं उन बारह दिनों में भी उनके निवास पर शोक जताने नहीं जा सका। नहीं गया क्योंकि इस पीडा से ग्रसित था कि गुरु के रूप में उन्होंने जितना मेरा ध्यान रखा उसका एक फीसदी भी मैंने उनका ध्यान नहीं रखा। आज भगवा कपडों वालों को गुरु के रूप में देखकर मुझे मेरा गुरु याद आता है, जो जीवन की हर पीडा में मेरी पीडा को खुद सहन करता था। न सिर्फ मेरी बल्कि अपने तमाम शिष्यों की सुनती थी, आज गुरुपूर्णिमा पर उसी गुरु को एक बार फिर नमन
Saturday, July 17, 2010
Friday, July 16, 2010
जिंदल से सांसद सीखें जिंदादिली
पिछले दिनों एक समाचार आया कि डीजल इत्यादि के भाव बढ गए। कुछ ही देर में समाचार आया कि सांसदों ने अपने वेतन में बढोतरी के लिए मांग कर रहे हैं। बाद में उनका वेतन बढ गया। जो सांसद बढा हुआ वेतन ले रहे हैं उनके लिए नसीहत है, हालांकि सांसद नसीहत देते हैं, लेते नहीं है, फिर भी अगर उचित समझें तो सांसद नवीन जिंदल के इस प्रयास को आत्मसात करने का प्रयास करें। मैं तो कम से कम इस मामले में जिंदल का फैन हो गया।
समाचार
कुरूक्षेत्र से कांग्रेस सांसद व उद्योगपति नवीन जिंदल ने क्षेत्र में शिक्षा में सुधार व सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ाने के मकसद से अपना पिछले पांच साल का वेतन दान करने की घोषणा की है। वर्ष 2004 से वर्ष 2009 के दौरान जिंदल का कुल वेतन 40 लाख रूपए आंका गया है। जिंदल ने शिक्षा में सुधार के लिए अपनी व्यक्तिगत आय से भी 10 लाख रूपए देने का ऎलान किया है।
सांसद नवीन जिंदल ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि हरियाणा में सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए मुख्यमंत्री हुaा के सपने को साकार करने की ओर एक छोटा सा कदम है। जिंदल ने कहा कि मेरी भी इच्छा है कि सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के अधिकार से मुक्त नहीं रखा जाना चाहिए। यह जरूरी है कि बच्चे प्राथमिक स्तर पर ही अच्छी शिक्षा लें ताकि भविष्य में उन्हें कोई परेशानी न हो।जिंदल द्वारा दान दिए गए 50 लाख रूपयों से क्षेत्र की 1.4 लाख स्कूलों मे पढ़ रहे कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों के लिए नोटबुक खरीदने पर खर्च किया जाएगा।
इस अवसर पर जिंदल ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित कुछ प्राइमरी स्कूलों को भी इस योजना के अंतर्गत लाया जा सकता है। इसके लिए उन स्कूलों की पहचान करने का काम शुरू हो चुका है।
सांसद जिंदल के इस प्रयास को अगर सांसद सही समझते हैं तो अपने अपने क्षेत्र में ही सही कुछ हिस्सा तो देवें। हां, सांसद कोटे से हटकर इस राशि को देवें।
Tuesday, June 29, 2010
स्वागत करो पाकिस्तान का
भारत और पाकिस्तान एक बार फिर पास पास आ रहे हैं, यह महज कुटनीतिक चाल है या फिर सच में पाकिस्तान कुछ करके दिखाना चाहता है, भारत के सत्रह बंदियों को पाकिस्तान की जेलों से रिहा करने की पहल हो या फिर हमारे मंत्री की तारीफ करना। पाकिस्तान ने दोनों देशों के बीच नफरत की आग पर चुल्लुभर पानी डालने की कोशिश जरूर की है। इस चुल्लुभर पानी को बढाना या फिर घटाना दोनों देशों आगामी नीतियों पर निर्भर करेगा। हम पलटकर देखेंगे तो नफरत, आतंकवाद, कडवाहट, बयानबाजी, मौका परस्ती, धोखाधड़ी में पाकिस्तान हमेशा आगे ही दिखाई दिया। यही कारण है कि हमारी सरकार, हमारा प्रशासनिक तंत्र, हमारी खुफिया एजेंसियां, हमारा सैन्य प्रबंधन यहां तक कि हमारे देश के आम लोग पाकिस्तान के साथ किसी तरह का अच्छा व्यवहार रखने के पक्ष में नहीं है। पक्ष में नहीं होने का एक नहीं बल्कि अनेक कारण है और सभी अपनी जगह सही है। वहीं अगर हम सिक्के का दूसरा पहलू देखें तो एक और पाकिस्तान नजर आएगा, जिनका दर्द हमारे मुम्बई हमलों के पीडि़तों जैसा ही है, जयपुर की तरह लाहौर में भी अनेक माताओं ने अपने लाल को खोया है, कई बच्चों की अम्मी अब दुनिया में नहीं है, कई पिताओं ने अपने पुत्रों की अर्थी को कंधा दिया है। भारत की तरह पाकिस्तान भी आतंकवाद की समस्या से कहीं न कहीं जूझ रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आम भारतीय और आम पाकिस्तानी दोनों ही इन समस्याओं से परेशान है। आतंकवाद से मृतकों की संख्या का आकलन करें तो पाकिस्तान और भारत में संख्यात्मक तौर पर समान स्थिति दिखाई देगी। दोनों ही जगह निर्दोष लोगों के मरने की संख्या कमोबेश बराबर ही होगी। हमारे यहां मंदिरों पर हमले हुए हैं तो पाकिस्तान में मस्जिदों को नहीं छोडा गया। दरअसल आतंककारियों के लिए भारत और पाकिस्तान एक जैसे हैं। उनके लिए हिन्दू और मुसलमान भी एक जैसे हैं। अब यह तो मीडिया का बनाया अंतर है कि वो मुस्लिम आतंकवाद है और यह हिन्दू आतंकवाद। पिछले दिनों एक चैनल की रिपोर्टर ने जब पाकिस्तान के गृहमंत्री से बात की तो उनसे हिन्दू आतंकवाद पर सवाल किया। मुझे शर्म आई कि आखिर यह सवाल ही क्यों उठता है।
मुश्किल यह है कि भारत पिछले पचास साल से पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्ते बनाने की कोशिश करता आ रहा है और पाकिस्तान पचास साल से उसी रिश्ते को बिगाडने के लिए एडीचोटी का जोर लगाता रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियों के पास पाकिस्तानी आतंकवाद के ढेरों उदाहरण ससबूत है, इसके बाद भी पाकिस्तान उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रहा। यही कारण है कि दोनों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो गई है कि गृहमंत्रियों के मिलने या फिर हमारे गृहमंत्री की तारीफ भर कर देने से यह खाई पटने वाली नहीं है। पाकिस्तान ने सत्रह बंदियों को छोडने की जो पहल की है, वैसी ही पहल उसे लगातार करनी होगी ताकि विश्वास बन सके। पाकिस्तान को अपने सिरफरे खिलाडियों को भी समझाना होगा कि वो मैदान में खेल की भावना से खेले। छक्के खाने के बाद शोएब अख्तर ने जिस तरह से हरभजन की तरफ इशारा किया वो दोनों देशों के क्रिकेटप्रेमियों के लिए अच्छा संदेश नहीं था। दोनों देशों में क्रिकेट का जुनून करोडों लोगों पर है, ऐसे में ऐसी गलतियां भी परेशानी का सबब बन सकती है। बात बहुत छोटी है लेकिन विश्वास बनाने के लिए हर तरफ से प्रयास जरूरी है।
बेहतर होगा कि बात नेताओं से हटकर भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच शुरू होनी चाहिए। दोनों देशों को अपने 'आम' लोगों को इधर उधर आने जाने की छूट देनी चाहिए ताकि प्यार का रिश्ता फिर कायम हो।
Monday, May 31, 2010
भारत और पाकिस्तान कब होंगे दोस्त
मैंने अपने ब्लॉग पर पहले भी पाकिस्तान के बारे में बहुत कुछ लिखा है। जब मेरी लेखनी पाकिस्तान के खिलाफ हुई तो बहुत से साथियों ने मेरी बात का समर्थन किया और आज जब मैं पाकिस्तान के साथ सकारात्मक विचारधारा रखने के लिए आम लोगों से पहल की बात करता हूं तो मेरे आलेख को विशेष तरजीह नहीं मिलती। कारण साफ है कि हम पाकिस्तान को दुश्मन शब्द का एक पर्याय मानते हैं। इस हम में सिर्फ वो लोग हैं जो कभी किसी अच्छे पाकिस्तानी से नहीं मिले। इस हम में सिर्फ वो लोग हैं, जिनका कोई पाकिस्तान में नहीं है, इस हम में सिर्फ वो लोग हैं जिनका पाकिस्तान से कोई जुडाव नहीं रहा है। इस हम में सिर्फ वो लोग है जिन्होंने पाकिस्तान का मतलब क्रिकेट वाला पाकिस्तान ही समझ रखा है, जिसमें कभी मियादादं जम्प मारकर हमारे खिलाडी को चिडाता है तो कभी कुछ और मूर्खतापूर्ण हरकतें होती है। मैंने पाकिस्तान के एक पत्रकार के साथ छह दिन गुजारे हैं, जिसका उल्लेख मैं अपने पूर्व के आलेखों में कर चुका हूं। मैं आज भी आफताब को भुल नहीं पाता, सुबह उठते ही अल्लाह को याद करने के साथ ही मुझे चाय बनाकर देता। जो काठमांडु की गलियों में मुझसे घंटों बतियाता और कहता कि पाकिस्तान में अमिताभ बच्चन पहले है और परवेज मुशर्रफ बाद में। उस समय पाकिस्तान के कराची में अमिताभ बच्चन के बडे बडे होर्डिंग भी लगे हुए थे। मुझ आफताब की वो बातें याद हैं जिसमें उसने बताया कि हमारे यहां भी मंदिर है, हमारे यहां उनका सम्मान होता है। मैंने विरोध किया और बोला मंदिर तो आपके यहां तोडे जा रहे हैं, उसने तपाक से कहा, मंदिर क्यों मस्जिद भी टूट रही है। पिछले दिनों लाहौर में मस्जिदों पर हमले की बात सुनकर मुझे उसकी बात फिर याद आ गई। यह सही है कि पाकिस्तान में सिर्फ मंदिर ही नहीं टूटते मस्जिद भी टूटती है। उसकी एक और बात मुझे याद है कि हमारे से ज्यादा मुसलमान तो भारत में है, फिर हम अकेले मुसलमानों के ठेकेदार थोडे ही है। उसको दर्द था कि पाकिस्तानी की सियासत ने भारत के साथ रिश्तों को इतना कडवा बना दिया है कि हम क्रिकेट के मैच की तरह ही इस मसले को देखते हैं। यह समझते ही नहीं कि क्रिकेट तो गेम है, उसमें खिलाडी तीखापन नहीं रखेगा तो हार जाएगा। इतना ही नहीं द डॉन के एक पत्रकार जिसका नाम मैं भूल रहा हूं, से जब हमने कहां कि भारत में तो पाकिस्तान को लेकर इतना गुस्सा है कि हर कोई चाहता है कि लाहौर जाकर तिरंगा फहरा दूं। इस पर उसने कहां, आपका स्वागत है, मेरा विश्वास है कि जब आप लाहौर पहुंचेंगे तो आपकी नफरत कम हो जाएगी। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि दोनों पाकिस्तानी पत्रकारों से तब इतना प्रभावित नहीं हुआ, लेकिन आज मानता हूं कि उनकी बात सही थी कि दोनों ही देशों की हालत एक जैसी है, परेशानी एक जैसी है, हम तो भाई थे और भाई ही रहकर जी सकते हैं। सियासी चालबाजियों में पाकिस्तान का निकम्मापन कम हो जाए तो निश्चित रूप से भारत सरकार के प्रयास सफल हो सकते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की चलाई बस प्यार का पैगाम ला सकती है, बशर्ते रिश्तों की खटास पहले कम तो हो। यहां मैं सभी ब्लॉगर साथियों से पूछना चाहूंगा कि क्या भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध नहीं सुधर सकते। क्या भारत और पाकिस्तान की परेशानी एक जैसी नहीं है। क्या भारत और पाकिस्तान मिलकर दुनिया में बडी शक्ति रूप में स्थापित नहीं हो सकते। अगर हां, पहल कहां से होनी चाहिए। इधर से या उधर से। सियासत से इंसानियत से।
Saturday, May 29, 2010
अब तो संभलो भारत पाक
भारत में पश्चिमी बंगाल की रेल पटरियों को उडाकर नक्सलियों ने सौ से अधिक लोगों की जान ले ली। यह खबर दिनभर न्यूज चैनल्स पर बनी रही और बाद में एक खबर पाकिस्तान से आई। वहां मस्जिदों पर हमला कर दिया गया और करीब सौ लोगों की जान चली गई। खुदा की इबादत करने पहुंचे मुस्लिम लोगों को इसका निशाना बनाया गया। भारत में कौन मरा, इसका कोई रिकार्ड नहीं है क्योंकि उसमें मरने वाले हिन्दू और मुसलमान सभी है। सुबह से शाम तक इस खबर को देखने के बाद यह समझ आया कि आखिर दोनों देश एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कब तक लगाते रहेंगे। आखिर कब तक पाकिस्तान इस बात को नहीं समझेगा कि भारत में आतंक फैलाकर वो खुश नहीं रह सकता। दोनों ही देशों की हालात पिछले कुछ वर्षों में आतंकवाद के नाम पर इतनी बिगडी है कि दोनों को संभलने में ही वर्षों लग जाएंगे। मैं दोनों ही देशों के हालात को कुछ अलग नजरिए से देख रहा हूं। हो सकता है कि मैं गलत हूं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही ग़ह युद़ध के रूप में देखता हूं। ऐसा लगता है कि दोनों देशों को अपने घर में ही इतना उलझना पड रहा है कि दुनियाभर में अपनी धाक जमाने का काम दोनों का ही पीछे रह गया है। विदेशी ताकतों की कोशिश भी यही है कि एशिया महाद्वीप के दोनों देश कमजोर ही रहें। अंग्रेजों ने भारत को गुलाम रखते हुए भी एक दूसरे को लडाने का काम किया और आज भी अंग्रेजीयत वाले देश यही काम कर रहे हैं। भारत के नक्सवादियों को विदेशों से हथियार मिल रहे हैं और पाकिस्तान के आतंककारियों को भी विदेशी ही साजो सामान दे रहे हैं। अब तक दोनों देश एक दूसरे पर तलवार चलाते आए हैं क्या यह सही नहीं है कि अब दोनों देशों को मिलकर इस आतंकवाद के खिलाफ लडना होगा। दोनों देशों की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। संकट के इस दौर में विदेशी ताकतों से लडने के लिए तो भारत और पाकिस्तान को साझा रणनीति बनानी ही चाहिए। मैं यहां पाकिस्तान को किसी भी सूरत में भारत के दुश्मन के रूप में नहीं देख रहा। दुश्मन पाकिस्तान की रणनीति और राजनेता हो सकते हैं लेकिन वहां हमलों में मारे जा रहे तो आखिरकार इंसान ही है। कमोबेश ऐसा ही पाकिस्तानी राजनीति को समझना चाहिए कि भारत में जिन आतंककारियों को वो सहयोग कर रहा हैं, उनके द्वारा मारे जा रहे भी इंसान है। हम दोनों कभी एक हुआ करते थे फिर दो भाई अपने ही पडौस में रह रहे भाई के यहां खून की होली से कैसे अपना तिलक कर सकता है। नक्सलवाद भारत में आतंकवाद का नया नाम है। रेड टेरेरिज्म ने भारत को अंदर तक हिला दिया है। सत्ता पूरी तरह असहाय हो चुकी है, लोगों की मौत पर मंत्री ममता राजनीति करके चली जाती है। हमें हमारे नेताओं पर शर्म आती है, शायद पाकिस्तानी नेताओं को भी अपने नेताओं पर शर्म आती होगी। क्यों न नेताओं को किनारे रखकर दोनों देशों के आम नागरिक ही इस बारे में सोचे।
Wednesday, May 19, 2010
झारखण्ड में राजनीति खण्ड खण्ड
भारतीय जनता पार्टी और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के बीच आखिरकार समझौता हो गया। राजनीति की बदनीति आखिरकार फिर सामने आ गई कि हम राजनीति नहीं बल्कि राज के लिए नीतियों का कचूमर निकाल रहे हैं। भाजपा शायद मायावती के साथ हुए उस समझौते को भूल गई है जिसमें मायावती ने अपने हिस्से का शासन करके ठेंगा दिखा दिया था। इस देश की अनुशासित पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा आखिर क्यों झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की बातों में आ गई। जिस शिबू सोरेन को पद से हटवाने के लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता ताल ठोककर बैठ गए थे, उसी शिबू सोरेन के लिए भाजपा ने कांग्रेस को न जाने कितनी खरी खोटी सुनाई लेकिन उसी के साथ बैठकर साबित कर दिया कि राज के लिए किसी भी नीति का उपभोग किया जा सकता है। भाजपा के अर्जुन मुण्डा एक बार फिर मुख्यमंत्री तो बन जाएंगे लेकिन क्या 28 महीने में वो प्रदेश की तस्वीर को बदल सकेंगे। राजनीति पार्टियां तो अपनी नीति के लिए पहचानी जाती है। फिर भाजपा ने तो हमेशा नीति आधारित राजनीति की बात की है। ऐसे में बार बार पार्टी अपना विश्वास क्यों खो देती है। क्या मजबूरी है कि भाजपा को झामुमो की हर शर्त को मानकर सत्ता में आना पड रहा है। क्या कारण है कि जनता के सामने जाने के बजाय राजनीति का गडबडझाला पेश किया गया। भाजपा जैसी पार्टियां ही जब एक राज्य की सत्ता पर काबिज होने के लिए द्वंद्व फंद का इस्तेमाल करने लगेगी तो फिर दूसरी पार्टियों से क्या उम्मीद की जाएगी।
अटल बिहारी वाजपेयी, लालक़ण्ण आडवाणी और भैरोसिंह शेखावत जैसे कद़दावर नेताओं ने जिस पार्टी को नई पहचान दी, प्रमोद महाजन ने जिस पार्टी को सींचा, उस पार्टी को आज अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस तरह की सत्ता नीति अपनाना कहां तक जायज है। 25 मई को त्यागपत्र दे रहे शिबू सोरेन और तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बन रहे अर्जुन मुंडा में आखिर क्या अंतर रह जाएगा। कई बार लगता है कि देश के छोटे राज्यों में राजनीति के लिए जो द्वंद्व फंद हो रहे हैं वो बड़े राज्यों के लिए खतरे की घंटी है। जिस तरह की राजनीति झारखण्ड में चल रही है वो देश के लिए चिंता का विषय है। सब सत्ता के लिए लड रहे हैं। अब अपनी रेलमंत्री को ही लें। दिल्ली में भगदड से स्टेशन पर यात्रियों की मौत हो गई लेकिन ममता बनर्जी रेल प्रबंधन की जिम्मेदारी मानने के बजाय आम जनता को ही सीख दे रही हैं कि उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। रेल प्रबंधन ने एक मिनट पहले स्टेशन पर प्लेटफार्म बदला यह नहीं सोचा। दरअसल देश की रेल मंत्री इन दिनों पार्षदों के चुनाव में व्यस्त है। जितने वोटर कोलकाता के निकाय चुनाव में हिस्सा लेंगे, उससे कई गुना यात्री तो रेल में हर रोज यात्रा करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वो यात्री कोलकाता के नहीं है। अपनी राजनीति के लिए एक तरफ भाजपा पूरी नीति को दाव पर रख रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस की पैदावार ममता बनर्जी अपनी राजनीति के लिए पूरे मंत्रालय को भूल बैठी है।
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