बात से मन हल्‍का होता है

Saturday, June 1, 2013

इस हमाम में सारे एक जैसे हैं क्या?



भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन के भविष्य का फैसला रविवार को हो जाएगा। पिछले दिनों स्पॉट फिक्सिंग का मामला सामने आते ही उनकी प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए थे। बाद में जब इस भ्रष्टाचार की जड़ बेटी के ससुराल में ही मिली तो लोगों ने साफ कह दिया कि श्रीनिवासन को हटाया जाना चाहिए। ससुर की शह के बिना दामाद मयप्पन की हिम्मत नहीं होती कि वो किसी सट्टेबाज के सम्पर्क में आ जाए। संभव नहीं है फिर भी माने लेते हैं कि श्रीनिवासन को इस पूरे मामले के बारे में जानकारी ही नहीं थी। उनके दामाद पीठ पीछे गोरखधंधा कर रहे थे या फिर संपर्क बनाने के चक्कर में गलत फंस गए। इसके बाद भी यह सबसे बड़ा सत्य है कि श्रीनिवासन के दामाद स्पॉट फिक्सिंग में फंसे हुए हैं। कुछ न कुछ गड़बड़ हुआ है तभी दिल्ली पुलिस ने उन्हें हिरासत में लिया। ऐसे में मामले की जांच होनी चाहिए, जिसके आदेश स्वयं श्रीनिवासन ने दिए हैं। फिर वो नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने में संकोच क्यों कर रहे हैं? उनके रहते हुए जांच निष्पक्ष हो पाएगी, ऐसा संभव नहीं है। ऐसे में श्रीनिवासन को दूर रहते हुए पूरी जांच में सहयोग करना चाहिए। बीसीसीआई के पदाधिकारियों की ओर से त्यागपत्र देने का सिलसिला भले ही राजनीतिक आधार पर है, लेकिन यह स्वागत योग्य कदम है। इससे दबाव बनेगा और उसी दबाव में श्रीनिवासन त्यागपत्र देंगे। यह पद पर बने रहने की लोलुपता ही है कि केंद्रीय मंत्रियों, कांग्रेस नेताओं सहित कई बड़े खिलाडिय़ों के साफ साफ बोलने के बाद भी श्रीनिवासन इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। दरअसल, जहां धन और पद दोनों का सामंजस्य है, वहां बैठा आदमी किसी भी स्थिति में हटना नहीं चाहता। देश के सबसे धनवान खेल क्रिकेट से जुड़े संघों पर कब्जा करने के बाद कोई हटना नहीं चाहता। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि भाजपाई नेता भी इस मुद्दे पर शांत है। कांग्रेसी नेता तो शायद अपनी पार्टी की इज्जत के लिए नहीं बोल रहे लेकिन भाजपा नेताओं की जुबान पर ताला क्यों पड़ा है। खासकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की मजबूत कड़ी अरुण जेटली की चुप्पी क्रिकेट भ्रष्टाचार की मौन कहानी पर हकीकत की मोहर लगाती दिखती है। ऐसा लगता है कि हमाम में सब नंगे हैं। श्रीनिवासन के त्यागपत्र देने के बाद भी क्या मामले की निष्पक्ष जांच हो पाएगी?

Sunday, May 26, 2013

यह कैसा नक्‍सलवाद ?

पश्चिम बंगाल में एक जगह है नक्‍सलबाड़ी। वहां के किसानों ने अपनी मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया तो नक्‍सलबाड़ी के लोग नक्‍सलवादी हो गए। जिन लोगों ने आंदोलन की शुरूआत की थी, उन्‍होंने कभी यह तय नहीं किया था कि निहत्‍थे लोगों पर हमला करेंगे। कोई नेता सामने आएगा तो उसका सीना छनली कर देंगे। कोई पुलिसकर्मी सामने आया तो इतनी गोलियां उसके सीने में ठोक देंगे कि कोई गिन भी नहीं पाए। दरअसल, नक्‍सलवाद की पहचान इस स्‍याह हकीकत से बहुत दूर थी। मांग करने का हर किसी को अधिकार है, लोकतंत्र जब प्रधानमंत्री का पुतला जलाने की अनुमति दे सकता है तो महेंद्र कर्मा का भी पुतला जलाया जा सकता था। कुछ समय बाद वहां चुनाव होने वाले हैं और कांग्रेस को जबर्दस्‍त वोटो से हराकर विरोध जताया जा सकता था। पहले दंतेवाड़ा और अब सुकमा में जो कुछ भी हुआ, वो नक्‍सलवाद या किसी आंदोलन का सही चेहरा नहीं है।
कुछ लोग नक्‍सलवाद को मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रूप मानते हैं लेकिन हकीकत में मार्क्‍स और लेनिन में से किसी ने भी हत्‍या करके ध्‍यान आकृष्‍ट करने का रास्‍ता अपनाने की सलाह नहीं दी है।  इन लोगों ने तरीके से आंदोलन चलाने का समर्थन किया है, कायरों की तरह पीछे से वार करने का ज्ञान तो उन्‍होंने कभी दिया ही नहीं। ऐसे में दंतेवाड़ा और अब सुकमा की घटना ने साफ कर दिया है कि नक्‍सलवाद ने अपना चेहरा बदल लिया है। यह सही है कि नक्‍सली क्षेत्रों का विकास देश के विकास की तुलना में बहुत कम हुआ है। इसका कारण ढूंढना पड़ेगा। सिर्फ सरकार को दोषी ठहराने से समस्‍या का हल नहीं होना। केंद्र में स्‍थापित रही कांग्रेस और पूर्व में रही भाजपा की सरकार ने कभी नहीं चाहा कि नक्‍सलवाद उग्रवाद के रूप में सामने आए या फिर देश का कोई हिस्‍सा इस तरह पिछड़ा रह जाए। हकीकत तो यह है कि सभी सरकारें चाहती है कि नक्‍सलवाद, माओवाद का हल निकले। क्‍यों नहीं निकल रहा है, इस पर चिंतन करने की जरूरत है। कौनसी ताकतें हैं जो सरकार और माओवादियों के बीच वार्ता के हालात ही पैदा नहीं होने दे रही।
यह कैसी राजनीति
आखिर माओवादियों की यह कैसी राजनीति है कि वो किसी से बात करने के लिए तैयार नहीं है और बात करते भी है ऐसी दस शर्तें पहले से साथ रखते हैं, जिनकी पूर्ति होना संभव नहीं है। परिवार में रहने वाले चार भाईयों में एक सक्षम और दूसरा गरीब हो सकता है, विवाद भी हो सकते हैं, लेकिन खून का रास्‍ता अख्तियार करने वाला अगर गरीब भी है तो समाज उसे दुत्‍कारता है। नक्‍सलियों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। वो जिस रास्‍ते पर चल रहे हैं, उस पर किसी का समर्थन नहीं मिलने वाला।
एक सीमा तक सहन
नक्‍सलवाद को सामाजिक उत्‍पीड़न के कारण उपजा रोग बताया जाता रहा है। काफी हद तक यह सही है कि जिन लोगों को आजाद देश में सुविधाएं नहीं मिलेगी, वो आंदोलन करेगा। उनका आंदोलन जायज है। यह आंदोलन एक लम्‍बे इंतजार और संघर्ष के बाद खड़ा हुआ। खून खराबे की स्थिति शायद पूरी तरह निराशा का भाव आने के बाद शुरू हुआ दौर है। नक्‍सलियों को सोचना चाहिए कि अब आम जनता उनसे त्रस्‍त है, परेशान है, उनके सब्र का बांध भी धीरे धीरे टूट रहा है। यही कारण है कि बस्‍तर में नक्‍सलियों का जोरदार विरोध करने वाला महेंद्र कर्मा वहां टाइगर रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गया। नक्‍सलियों को भी यह भय सता रहा है कि उनके सामने विरोध की एक और सत्‍ता खड़ी हो रही है। इसी सत्‍ता को जवाब देने के लिए कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया गया। महेंद्र कर्मा को मारना ही नक्‍सलियों का मुख्‍य उद़देश्‍य था। चूंकि कर्मा को कांग्रेस ने पनाह दी थी, इसलिए उस पार्टी के अध्‍यक्ष का खात्‍मा करना नक्‍सलियों के ज्‍यादा सुखद था। उन्‍होंने ऐसा करके अपना अहं तो दिखा दिया लेकिन नक्‍सलवाद के अंतस में बैठे आंदोलन को इससे धक्‍का लगना अब तय हो गया है। धीरे धीरे नक्‍सलवाद और माओवाद के प्रति गरीब और मध्‍यम वर्ग की जो आस्‍था थी, वो खत्‍म हो रही है।
कट़टरवाद से लड़ेगी सरकार
इस घटना के बाद खालिस्‍तान की जंग याद आती है। जब सरकार ने तय कर लिया कि इसे खत्‍म करना है तो कर दिया गया। यह नक्‍सलवादी भी जानते हैं कि सरकार उनके हथियारों के कारण नहीं बल्कि सामाजिक जिम्‍मेदारी के कारण जवाबी हमला करने से बचती है। जिस दिन समाज का तानाबाना टूटता नजर आएगा तब शायद सरकार की सख्‍ती बढ़ जाएगी। ऐसे में इस कट़टवार को खत्‍म करने के लिए गोलियां चली तो‍ किसी की संवेदना भी शायद नक्‍सलियों के प्रति नहीं रहेगी। बेहतर होगा कि आम और अनजान भारतीयों को नक्‍सलवाद एक आंदोलन के रूप में ही दिखाई दें, आतंकवाद की तरह नहीं।
दोनों सरकारें जिम्‍मेदार
इस घटना के बाद राज्‍य और केंद्र सरकार एक दूसरे पर आरोप लगा रही है। हकीकत में दोनों ही सरकारें इस घटना के लिए जिम्‍मेदार है। खुफिया तंत्र केंद्र सरकार के इशारे पर चलता है। क्‍या कारण थे कि उनके ही नेताओं पर हमले की सूचना नहीं पहुंची। दरअसल, चार दिन की गंभीरता के बाद सरकार और प्रशासन आतंकवाद और नक्‍सलवाद को भूल जाती है।