बात से मन हल्‍का होता है

Saturday, August 29, 2009

बीजेपी यानि भारतीय ''झगड़ा'' पार्टी


वक्‍त गुजारने का भी अपना एक अंदाज होता है। कोई गीत गाकर, कोई टहल कर, कोई सिगरेट पीकर, कोई नींद लेकर, कोई किताब पढ़कर, कोई हंसी मजाक करके और कोई कोई तो झगड़ा करके वक्‍त गुजारता है। यहां दिए सभी उदाहरणों से आप सहमत होंगे लेकिन एक 'झगड़े' वाले से नहीं। अगर आप भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान हालत पर नजर डालेंगे तो यह भी सच ही प्रतीत होगा। बीजेपी का अर्थ इन दिनों भारतीय 'जनता' पार्टी नहीं है बल्कि भारतीय 'झगड़ा' पार्टी हो रहा है। पिछले दिनों राजस्‍थान में वसुंधरा राजे को प्रतिपक्ष नेता हटाने की कवायद के साथ साबित हो गया था कि पार्टी अब बड़े संघर्ष के लिए तैयार हो रही है। जिस वसुंधरा राजे ने भाजपा को पहली बार प्रदेश में स्‍पष्‍ट बहुमत दिलाया और आज मुख्‍यमंत्री नहीं होते हुए भी आम राजस्‍थानी में लोकप्रिय है, उसी वसुंधरा को उखाड़ने की कवायद शुरू की गई। मामला दिल्‍ली पहुंचा तो पता चला कि वहां राष्‍टीय अध्‍यक्ष स्‍वयं विवादों में उलझे हुए हैं। एक दो दिन बाद वसुंधरा के विरोधी माने जाने वाले जसवंत सिंह ही चलते बने। जिन्‍ना पुराण उन्‍हें ले डूबा। अभी जसवंत का मामला निपटा ही नहीं कि राष्‍टीय स्‍वयंसेवक संघ ने नई बहस छेड़ दी। यह बहस भाजपा के शीर्ष के साथ जड़ तक को हिलाने वाली है। इस बार अटल बिहारी वाजपेयी के बाद भाजपा के दूसरे मुखौटे लालकृष्‍ण आडवाणी को ही चलता करने की रणनीति सामने आई। आडवाणी को प्रतिपक्ष नेता पद से हटाने की कवायद शुरू हो गई। राष्‍टीय स्‍वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने आडवाणी को सलाह दी या आदेश यह तो पार्टी की नीति रीति के निर्माता ही बता सकते हैं लेकिन हकीकत सिर्फ इतनी है कि भाजपा बहुत ही बुरी स्थिति में पहुंच गई है। एक वर्ग तो राजनाथ सिंह को ही अलविदा करने की तैयारी में जुटा है। क्‍या भाजपा के सारे ''बटन'' बदल जाएंगे। वैसे भी नए स्‍वरूप में आना बहुत आसान नहीं होता। अगर पार्टी अपने स्‍वरूप में ही परिवर्तन लाने के दौर से गुजर रही है तो अगले लोकसभा चुनाव तक बहुत कुछ सुधर सकता है और अगर यह पार्टी के वरिष्‍ठ नेताओं की आपसी खींचतान है तो अगले चुनाव तक भाजपा भी जनता दल की तरह दल दल तक पहुंच जाएगी। वर्तमान में पार्टी जड़ से शीर्ष तक अस्‍त व्‍यस्‍त है, ऐसे में अभी टुकड़े हुए तो कोई संभालने वाला नहीं मिलेगा। अवसर भी नहीं रहेगा। कभी अरूण शोरी तो कभी खडूरी जैसे नेता पार्टी को खूंटी पर टांग देते हैं।
इस दौर में राजस्‍थान की पूर्व मुख्‍यमंत्री वसुंधरा राजे ने हालांकि पार्टी बनाने की अटकलों पर यह कहते हुए विराम लगा दिया कि भाजपा उनकी मां की तरह है। अगर राजे नई पार्टी बना लेती तो निश्चित रूप से राजस्‍थान में भाजपा तीसरे नम्‍बर पर लुढ़क जाती। आज भी वसुंधरा आम आदमी के दिलों दिमाग पर छाई हुई है। राजस्‍थान में संभाग मुख्‍यालयों पर चार घंटे बिजली कटौती हो रही है, लाइट गुल होते ही आम आदमी एक ही बात कहता है ''फेर दो कोंग्रेस ने बोट'। कर्मचारी आज भी वसुंधरा के कायल है। भाजपा के अस्‍सी फीसदी विधायक उनके साथ है, ऐसे में उन्‍हें ही प्रतिपक्ष नेता से हटाना हजम नहीं हो रहा। इस मामले में केंद्र पर गंभीरता से चिंतन हो रहा था लेकिन अब स्‍वयं उनकी जमीन हिल गई तो कोई राजे के बारे में क्‍या सोचे? वैसे मामला सिर्फ केंद्र और राज्‍य स्‍तर तक ही सीमित नहीं है कोई गंभीरता से चिंतन करें तो आम कार्यकर्ता तक असंतुष्‍ट है।
आडवाणी कार्टून - बीबीसी से साभार

Tuesday, August 25, 2009

इनको कब मिलेगी ''अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता''


नेताओं के बारे में आपका क्‍या विचार है ? कम बोलते हैं या ज्‍यादा बोलते हैं ? आपका जवाब निश्चित रूप से होगा ''बहुत बोलते हैं'', लेकिन क्‍या आपको पता है कि नेता निलम्‍बन के बाद ज्‍यादा तो बोलते ही है सच भी बोलने लगते हैं। पिछले दिनों जसवंत सिंह को पार्टी से‍ निष्‍कासित किया तो वो बहुत जोर जोर से बोलने लगे। बताने लगे कि देश के आतंकियों को कंधार छोड़ने के फैसले में आडवाणी भी शामिल थे। हम तो यह कहते हैं कि आडवाणी के शामिल नहीं होने की बात किसने कही थी। सभी जानते हैं कि उस समय जो भी निर्णय हुआ वो आडवाणी के न सिर्फ ध्‍यान में था बल्कि निर्णय करने वालों में भी वे शामिल थे। जसवंत सिंह अब बोल रहे हैं कि उन्‍होंने प्रधानमंत्री को इस्‍तीफा नहीं देने के लिए मनाया। गुजरात में जो कुछ हुआ, उससे दुखी अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि नरेंद्र मोदी को हटा दिया जाए लेकिन आडवाणी ने हटने नहीं दिया। जसवंत सिंह जी यह बात उस समय बोल जाते तो निश्चित रूप से अब तक ऑपरेशन हो चुका होता। लेकिन तब राष्‍टहित बाद में था और पार्टी हित पहले था। आज जब पार्टी ही नहीं रही तो उसके बारे में कुछ भी बोला जा सकता है। यह तो दोहरापन है। सही और गलत को हर जगह तोलने की हिम्‍मत नेताओं में क्‍यों खत्‍म होती जा रही है। वैसे अरुण शौरी भी अब राग अलापने लगे है। शौरी कह रहे हैं कि राजनाथ सिंह 'हम्‍प्‍टी डम्‍प्‍टी' की तरह है। क्‍या बात है शौरीजी। बहुत देर से पता चला कि राजनाथ क्‍या है ? पार्टी को कटी पतंग कहने वाले शौरी को मानना होगा कि इसी पतंग को एक दो 'हिचके' उन्‍होंने भी दिए हैं। वो मानते हैं कि राजनाथ सिंह पार्टी को सही तरीके से संचालित नहीं कर रहे। संभव है कि भाजपा के वर्तमान दौर में शौरी की बात सही है। यह भी सही है कि राजस्‍थान की मुख्‍यमंत्री रही वसुंधरा राजे को जिस बेकद्री से हटाया जा रहा है, वो न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ता बल्कि आम जनता के लिए भी दुखद साबित हो रहा है। खंडूरी को हटाने के पूर्व निर्णय की आलोचना भी शौरी ने अब की है। अच्‍छी बात है कि शौरी कुछ बोले तो सही। अब वसुंधरा प्रकरण भी समाप्‍त होने वाला है और खंडूरी वाला मामला तो कब का निपट चुका। इस मामले में भी शौरी सार्वजनिक रूप से बहुत देरी से बोले। न सिर्फ भाजपा बल्‍िक कांग्रेस में भी ऐसे ही हालात है। यह कहें तो गलत नहीं होगा कि भाजपा से ज्‍यादा रोक कांग्रेस में है। वहां पार्टी से हटकर जो बोला है सब न सिर्फ पार्टी के बल्कि राजनीति के हाशिये पर चले गए। शरद पंवार अपने बूते पर राजनीति में कायम है, लेकिन कांग्रेस ने उन्‍हें दरकिनार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नटवर सिंह इससे भी बड़ा उदाहरण है जो न सिर्फ देश की बल्कि राजस्‍थान की राजनीति से भी साफ हो चुके हैं। बड़े बेआबरू होकर पार्टी से बाहर गए। अगर हिसाब किताब सही होता तो नटवर सिंह के ऐसे हाल नहीं होते। नजमा हेपतुल्‍ला की स्थिति से भी स्‍पष्‍ट है कि कांग्रेस में कितना लोकतंत्र बाकी रह गया है। विचारधारा का राग अलापने वाली वामपंथी पार्टियों ने दो कदम आगे बढ़ाते हुए सोमनाथ चटर्जी को ''किक आउट'' कर दिया क्‍योंकि उन्‍होंने अपने राजधर्म को पार्टी धर्म से बड़ा मान लिया था।
मेरा मानना है कि अभिव्‍यक्ति की जिस स्‍वतंत्रता का राग संसद में आए दिन अलापा जाता है वो स्‍वयं नेताओं के पास नहीं है। इन नेताओं को सिर्फ और सिर्फ पार्टी की लाइन पर बोल सकते हैं। जो हिम्‍मत कर लेता है वो बेचारा कीमत चुकाता ही है।

Thursday, August 20, 2009

भारतीय जिन्‍ना पार्टी


भारतीय जनता पार्टी का नाम एक बार फिर बदलता दिखा। भारतीय जनता पार्टी से भारतीय जिन्‍ना पार्टी। नाम नहीं बदले इसलिए पार्टी ने जिन्‍ना का गुणगान करने वाले जसवन्‍त सिंह को ही बाहर निकाल दिया। जसवंत सिंह ने अपनी किताब में जिन्‍ना के बारे में नहीं लिखा है बल्कि पूरी किताब ही जिन्‍ना को समर्पित कर दी है। इस पुस्‍तक में जिन्‍ना का जितना गुणगान किया गया, वो प्रत्‍येक भारतीय के लिए आपत्तिजनक है। होना भी चाहिए। हम आज रावण को दशहरे पर अग्नि के हवाले क्‍यों करते हैं। रावण तो बहुत ही विद्वान व्‍यक्ति था। उसने बहुत सामाजिक कार्य किए थे लेकिन सीता माता के प्रति उसकी गलत सोच ही उससे नफरत का कारण बनी। जिन्‍ना बहुत अच्‍छे इंसान रहे होंगे लेकिन अपनी ही मां का गला काटकर उसके दो टुकड़े कर देने वाले को माफ नहीं किया जा सकता। यह नहीं कहा जा सकता कि वो अच्‍छा इंसान था। एक गलती तो सदियों की तपस्‍या को भंग कर देती है, फिर जिन्‍ना की गलती तो सदियों को भुगतनी पड़ेगी। हजारों परिवारों ने भुगती भी है। जसवंत सिंह ने कहा है कि देश के विभाजन के लिए जिन्‍ना नहीं बल्‍िक जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल जिम्‍मेदार थे। जसवंत सिंह जी यह बताएं कि भारतीय जनता पार्टी का राज आने पर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया गया, एक खेमा लालकृष्‍ण आडवाणी को चाहता था। आडवाणी नहीं बन पाए तो क्‍या वो अलग देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे ? यह संभव है कि प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में जवाहर लाल नेहरू और जिन्‍ना दोनों का दावा हो सकता है। यह भी संभव है कि नेहरू ने दबाव बनाया हो। यह तो राजनीति है, उसका जवाब भी राजनीतिक होना चाहिए। राजनीति में बहुत कुछ गलत हो रहा है, आज स्‍तर गिर गया लेकिन क्‍या किसी राज्‍य के नेता ने यह कहा कि मुझे मुख्‍यमंत्री नहीं बना रहे तो अलग राज्‍य बना दो। जिन्‍ना ने तो देश ही दूसरा बना दिया। जसवंत सिंह तो देश की गुलामी के वक्‍त के हैं, उन्‍हें तो यह पता ही होगा कि देशभर में कहीं से यह मांग नहीं उठी कि पाकिस्‍तान बनाओ। इस देश के मुसलमान नहीं चाहते थे कि विभाजन हो। इस देश के मुसलमान नहीं चाहते थे कि उन्‍हें अलग किया जाए। इस देश के मुसलमान अपने लिए अलग से नरक बनाने का सपना संजाऐ नहीं बैठे थे। यही कारण है कि आज भी पाकिस्‍तान से ज्‍यादा मुसलमान हिन्‍दूस्‍तान में रहते हैं। बासठ साल बाद भी हिन्‍दूस्‍तान के मुसलमान पाकिस्‍तान जाना तो दूर उस तरफ मुंह नहीं करना चाहते। ऐसे में अपनी महत्‍वाकांक्षा पूरी करने के लिए जिन्‍ना ने जो कुछ किया, वो उसकी सौ तो क्‍या हजार खूबियों पर पानी फेरने के लिए काफी है।
जसवंत सिंह को पार्टी से निष्‍कासित करना उचित है या गलत ? यह तो जवाब पार्टी दे लेकिन हम तो इतना कहते हैं कि हिन्‍दूस्‍तान में जिन्‍ना पूजा उचित नहीं है। महज देशभर में चर्चा बने रहने के लिए ऐसा करना अनुचित है। हां इतना जरूर कहेंग कि पार्टी में दोहरी नीति है, जिसने जिन्‍ना की मजार पर जाकर तारीफों के पुल बांधे उन्‍हें कुछ नहीं कहा गया और जो यहीं बैठे किताबें लिख रहे हैं, उन्‍हें पार्टी से निकाल दिया। खैर मर्जी है उनकी, क्‍योंकि पार्टी है उनकी।

Monday, August 17, 2009

आशीषजी, नए ब्‍लॉगर को संघर्ष करना पड़ता है

आशीषजी का ब्‍लॉग पढ़ने के बाद पहले तो उन्‍हें कमेंट देने का मन किया, फिर सोचा अपन भी एक पोस्‍ट ही रगड़ देते हैं। शायद कुछ कमेंट अपने को भी मिल जाए। आपने जिस ब्‍लॉगर साथी की धज्जियां उड़ाई है, उनका नाम पता मुझे नहीं पता क्‍योंकि मेरा मेल पता सार्वजनिक नहीं है। फिर भी उसका मेल आता तो मैं सहजता से पढ़ता और एक टिप्‍पणी भी करता। टिप्‍पणी यह भी हो सकती थी कि आपका पोस्‍ट अभी मेहनत मांगता है, आपका पोस्‍ट बेहतर है, आपको अपने ब्‍लॉग में और बेहतर तरीके से काम करना चाहिए। आपको मेल करने के बजाय अपनी लेखनी में इतना दम लाना चाहिए कि लोग खुद पढ़े। जी हां ठीक वैसे ही जैसे आशीष जी के आलेख पढ़े जाते हैं, उनके आज 540 फोलोवर है। मैं पत्रकारिता के पेशे से जुड़ा हुआ हूं इसलिए समझता हूं कि लोग स्‍वयं को स्‍थापित करने के लिए क्‍या क्‍या करते हैं। बहुत संघर्ष करना पड़ता है। विशेषकर लेखक और साहित्‍य की दुनिया में स्‍वयं को स्‍थापित करना बहुत मुश्किल है। समाचार पत्रों में अब साहित्‍य के लिए इतना स्‍थान नहीं है कि हर बार एक नए लेखक को प्रकाशित करें। नतीजतन पुराने और प्रतिष्ठित लेखक को ही स्‍थान मिल पाता है। वैसे भी प्रतिस्‍पर्द्वा के इस युग में यही संभव है। ऐसे में नए लेखक ब्‍लॉग की तरफ जुड रहे हैं। वो अपनी लेखनी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। बताना चाहते हैं कि उन्‍होंने लिखा है, देखें कैसा लिखा है। यह नहीं कहा जाता कि सकारात्‍मक टिप्‍पणी ही दें। सभी चाहते हैं कि उसके पास अधिक से अधिक पाठक आएं। मैं अपने ब्‍लॉग पर अलग अलग विषयों पर लिखता हूं। मेरा अध्‍ययन है संभव है कि गलत हो, कि शिक्षा सहित अनेक गंभीर मुद़दों पर लोग पढ़ना ही नहीं चाहते। आज पाकिस्‍तान के बारे में कुछ लिखता हूं तो खूब पढ़ने वाले आते हैं। मैंने दुनिया भर के देशों की सूची दी तो बहुत कम लोग आए लेकिन अमरीका पाकिस्‍तान का जिक्र किया तो काफी पाठक आए। यह पाठक के स्‍वभाव पर निर्भर है। हर कोई चाहेगा कि उसे ज्‍यादा से ज्‍यादा लोग पढ़े। एक बार तो पढ़े फिर पसंद नहीं आए तो दोबारा भले ही उस तरफ मुंह न करें। जैसे कि आपने अपनी पोस्‍ट के ठीक नीचे ही सदस्‍य बनने के लिए आग्रह किया है। निसंदेह आपका ब्‍लॉग ही ऐसा है कि लोग खींचे चले आते हैं, आपकी जानकारी हर किसी को न सिर्फ प्रभावित करने वाली है बल्कि लाभदायी भी है। फिर भी आशीष जी आपको मानना होगा कि नया ब्‍लॉगर स्‍वयं के आलेख को सब के सामने पहुंचाने के लिए कुछ प्रयास करता है। जितनी मेहनत से ''उस'' साथी ने ईमेल एकत्र करके अपनी सूचना पहुंचाने का उपक्रम किया, उतनी ही गति से आपने उसका पत्‍ता साफ कर दिया। नि-संदेह जिन लोगों के पास उक्‍त पोस्‍ट पहुंची सभी ने उस लेखक को तो बेकार मान ही लिया होगा। मेरा मानना है कि इस देश में लता मंगेशकर तो एक ही है क्‍योंकि वो ही इस मंच तक पहुंच सकी, लेकिन उनसे भी बेहतर गाने वाली और भी होगी जो अपने घर में ही मंदिर के आगे बैठकर भजन ही करती है। हम लता मंगेशकर का सम्‍मान तो करें लेकिन भजन गा रही सामान्‍य गायिका का अपमान तो नहीं करें। बेहतर होता कि आप सभी इमेल पते देने और ब्‍लॉगर का नाम हटाने आदि का उपक्रम करने के बजाय अलग से एक पोस्‍ट देते कि एक साथ सैकड़ों लोगों को पोस्‍ट करने से क्‍या नुकसान है, क्‍या फायदें हैं।
मैंने शुद्व मन से लिखने का प्रयास किया है। उम्‍मीद है आप अन्‍यथा नहीं लेंगे।

Thursday, August 13, 2009

अमरीका फिर पाक के साथ


आखिर दुनिया की क्‍या मजबूरी है कि वो अमरीका की बकवास को सुनता है। चलो दुनिया की छोड़ो हम तो घर की बात करते हैं। अमरीका में ऐसा क्‍या है जो हम उसकी बात न सिर्फ सुनने के लिए बल्कि मानने के लिए भी मजबूर हो जाते हैं। अब पिछले दिनों शर्म अल शेख की घटना को ध्‍यान में रखें तो खुद ही शर्मसार हो जाते हैं। अमरीका ने पाकिस्‍तान को हजार बार चेतावनी दे दी कि वो आतंकवाद से किनारा करें नहीं तो अमरीका उसे सहायता बंद कर देगा। इस बीच अपनी चिर परिचित शैली में एक बार फिर अमरीका ने साफ कर दिया कि वो पाकिस्‍तान को सहायता देता रहेगा। इस बार तो दो कदम आगे बढ़कर अमरीकी मंत्रालय ने स्‍पष्‍ट किया है कि दोनों देशों के बीच बने संबंध एक दो वर्षों के लिए नहीं है, बल्कि अर्से तक निभाने के लिए हैं। सही है दोनों एक दूसरे के मौसी के बेटे जो ठहरे। भारतीय अर्थ व्‍यवस्‍था, भारतीय विदेश नीति, भारतीय सांस्‍कृतिक नीति और तो और भारत की रक्षा नीति में कहीं भी पाकिस्‍तान सौ कदम से कम पीछे नहीं है। जब हम हर मामले में पाकिस्‍तान से सौ कदम आगे हैं तो हमें किसी अन्‍य देश की बात मानने की जरूरत ही क्‍या है? हम क्‍यों बार बार उससे बातचीत करते हैं ? दुनिया में जो देश तेज गति से आगे बढ़ रहा है वो भारत है। यह न सिर्फ मैं कह रहा हूं बल्कि स्‍वयं अमरीका भी मानने लगा है। जापान और चीन को भी आभास हो चुका है कि जिस गति से भारत आगे आ रहा है, उससे अधिक गति स्‍वयं अमरीका की नहीं है। यह आभास दूसरे देशों के नेताओं को हो रहा है लेकिन हमारे नेताओं को नहीं। पहले आडवाणीजी पाकिस्‍तान में जाकर जिन्‍ना की मजार पर भावुक हो गए और अब मनमोहनजी अपनी ही बात से हटकर शर्म अल शेख में बेशर्म हो गए। अभी मामला ठण्‍डा ही नहीं हुआ कि अमरीका ने सदा के लिए दोस्‍ती का वायदा करके साफ कर दिया कि भारतीय नेताओं के भरोसे विकास का पहिया रुकता जाएगा।