Friday, October 9, 2009
क्या देश में सेना की कमी है
देश के प्रमुख हिन्दी दैनिक 'पत्रिका' के सम्पादकीय पेज पर आमतौर पर फोटो प्रकाशित नहीं होता। कल का संपादकीय में चार कॉलम में एक फोटो छपा। नीचे लिखे केप्शन ने फोटो की अहमियत का अहसास करा दिया। मन को बहुत दुख हुआ कि आजाद भारत में एक पुलिस कर्मी को तरह मौत के घाट उतारा जा सकता है और जनता तमाशबीन होकर देख भी रही है। फ्रांसिस इंदूवार की हत्या के बाद पुलिस होश संभालती उससे पहले गढ़चिरौली में इंदूवार जैसे 18 और पुलिसकर्मी शहीद हो गए। पाकिस्तान को तीन बार धूल चंटाने वाला भारत, दुनिया की नई शक्ति के रूप में उभर रहे इंडिया और अपने अभिमान के लिए सब कुछ न्यौछावर करने वाले हिन्दूस्तान की क्या यही दशा देखनी शेष रह गई है। आखिर क्या कारण है कि हम नक्सलवाद से निपट ही नहीं पा रहे हैं। मायोवादी क्या भारतीय सेना से अधिक मजबूत, शक्तिशाली और निर्णयक्षमता वाले हो गए कि हम कमजोर साबित हो रहे हैं। हमारी सरकारी व्यवस्था का आलम तो यह है कि इंदूवार अपनी जान हथैली पर लेकर नक्सलवाद से लड़ रहा था और उसका सरकारी कार्यालय पांच माह पहले तबादले का कागज नहीं पहुंचने के कारण वेतन के लिए परिजनों को चक्कर कटा रहा था। हमारी सारी शक्ति इसी काम में लग रही है कि कैसे किसी काम को टाल दिया जाए। इंदूवार के वेतन से लेकर मायोवादियों का खात्मा करने के निर्णय तक के बीच ऐसे ही हालात हमें कमजोर साबित कर रहे हैं। महाराष्ट़ के जिस क्षेत्र में माओवादियों ने कब्जा किया है, वहां क्या भारतीय सेना नहीं पहुंच सकती। जब श्रीलंका लिट़टे जैसे संगठन को नेस्तनाबूद कर सकती है तो क्या हम इतने भी सक्षम नहीं है। दुख की बात है कि हमारे गृह मंत्री अब भी वार्ता की बात कर रहे हैं। क्या हमारी वार्ता इतनी मजबूती से होगी कि माओवादी हथियार डाल देंगे। हम बार बार मामले को टालने के लिए वार्ता और शांति की बात क्यों करते हैं ? जब देश के कानून में एक व्यक्ति की हत्या की सजा मौत है तो सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारने वालों के साथ वार्ता कैसी?
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