बात से मन हल्‍का होता है

Sunday, May 31, 2009

धन्‍यवाद अमिताभ जी

बच्‍चन

अमिताभ बच्‍चन यानि सदी के महानतम कलाकार। इन दिनों अमिताभ बच्‍चन इसलिए चर्चा में है कि उन्‍होंने आस्‍ट़ेलिया में मिलने वाली डॉक्‍टरेट की उपाधि लेने से इनकार कर दिया। दरअसल आस्‍टेलिया में जो कुछ भी भारतीय विद्यार्थियों के साथ हो रहा है, अमिताभ उससे आहत है। आहत भी इतने है कि पिछले दो दिन से अपने ब्‍लॉग bigb.bigadda.com पर इसी बारे में लिख रहे हैं। अमिताभ ने उस पत्र को भी ब्‍लॉग में स्‍थान दिया है, जो उन्‍होंने क्विंसलेंड युनिवर्सिटी ऑफ टेक्‍नोलॉजी ब्रिस्‍बेन को लिखा। पत्र में अमिताभ का गुस्‍सा साफ दिखाई देता है। बहुत ही संजीदगी के साथ अमिताभ ने इस सम्‍मान को ठुकरा दिया। उन्‍होंने विश्‍वविद्यालय की सराहना करते हुए साफ किया कि भारतीय विद्यार्थियों के साथ इस तरह का व्‍यवहार उचित नहीं है। जब से मीडिया से उन्‍हें इस बारे में जानकारी मिली है तब से वो स्‍वयं को आहत महसूस कर रहे हैं। अमिताभ बच्‍चन को डॉक्‍टरेट देकर यह विश्‍वविद्यालय अमिताभ को कम और स्‍वयं को ज्‍यादा सम्‍मानित महसूस करती। लेकिन वहां भारतीय विद्यार्थियों के साथ हो रही घटना पर अमिताभ की प्रतिक्रिया सच में सराहनीय है। उनका यह संदेश देश के सभी कलाकारों और विशेष रूप से राजनेताओं के लिए विचारणीय है। अमिताभ बच्‍चन को न तो डॉक्‍टरेट ठुकराकर प्रचार प्रसार पाने की जरूरत है और न उन्‍होंने पहले डॉक्‍टरेट के लिए इनकार किया था। उनका मन उक्‍त डॉक्‍टरेट को लेने का था लेकिन अपने ही देश के साथियों के साथ इस तरह की घटना ने उन्‍हें राष्‍ट़प्रेम की ओर प्रवाहित कर दिया। अमिताभ बच्‍चन ने अपने पत्र में लिखा है ......
I have been reading and watching through the media the most unfortunate and violent attacks on indian students in australia; some of them lying a most critical condition in hospital. i have observed with utter dsimay the angish that these incidents have caused to the familles of those who have become unfortunate victims.
under the prevailing circumstances i find it inoppropriate at this juncture, to accept this docoration. My conscience is profoundly unsettled at the moment and there seems to be a moral disjuncture beetween the suffering of these students and my own approbation.

उनके इस पत्र से साफ है कि वो सदी के महान नायक क्‍यों है।

Tuesday, May 26, 2009

35 वर्ष का बूढ़ा या जवान?


कल से एक सवाल मुझे परेशान कर रहा है कि 35 वर्ष का व्‍यक्ति बूढ़ा होता है या फिर जवान ? अथवा दोनों के बीच? दरअसल मैं कल ही उम्र की इस दहलीज पर पहुंचा हूं। मैं आज भी खुद को छोटा समझता हूं, जीवन के कई मोड़ से गुजरकर भी मैं स्‍वयं को 35 वर्ष का मान नहीं पा रहा हूं। मुझे याद है जब पांच वर्ष का था तो मम्‍मी सुबह पांच बजे मुझे नींद से जगाती, मैं आंखे मलता तब तक घर से बाहर निकलकर बछिया (हमारी गाय) को चारा डालती थी, फिर मुझे दूध देती, नहलाती, चकाचक चमकती पौशाक पहनाती। फिर घर से दो किलोमीटर दूर बस स्‍टॉप पर मुझे छोड़ने जाती। मम्‍मी के हाथ की अकरी पूडी स्‍कूल तक कभी कभार ही पहुंचती थी क्‍योंकि भूख बस में ही लग जाती। अगर टीफन का कुछ हिस्‍सा बच जाता तो पीरियड की शुरूआत में कॉपी या किताब निकालते वक्‍त एक एक ग्रास तोड़कर निपटा देता। कोई भी सूरत में रिसस का समय खाने में बर्बाद नहीं करता। दोपहर को घर पहुंचते बस्‍ता रखता नहीं था, फैंक देता था। उन अंग्रेजी की किताबों में मम्‍मी को समझ कुछ नहीं आता था लेकिन यह समझ थी, इस बस्‍ते में ही दम है। वो संभालती, ऊंचा रखती, होम वर्क के लिए पूछती और फिर खाने के लिए बिठा देती। खाना खाने के बाद खेल कभी कंचे खेलना तो कभी लुका छिपी। बीकानेर शहर के भीतरी क्षेत्र में लुका छिपी या चोर पुलिस खेलते खेलते कब शाम हो जाती पता ही नहीं चलता। मम्‍मी ढूंढती हुई आती, घर ले जाती, होम वर्क करवाती। महज पांच फीट की गैलरी में एक तरफ मम्‍मी कोयले के चूल्‍हे पर रोटी बनाती और दूसरी तरफ मैं और पिंकू (मेरे बड़े भाई साब, असल नाम अमिताभ क्‍योंकि अमिताभ बच्‍चन के जन्‍म दिन पर ही पैदा हुए थे।) होमवर्क करते। पिंकू काम करते करते ही नींद की झपकी लेता और मम्‍मी का एक शानदार तमाचा उसके गाल पर पड़ता उसके साथ साथ मेरी भी नींद उड़ जाती। छोटा था इसलिए मार अपने हिस्‍से कम आती थी। वो दिन भी याद है जब स्‍कूल में समय से पहले छुट़टी हो गई, हम सारे बच्‍चे प्रसन्‍न हुए कि आज जल्‍दी छुट़टी हो गई। बाद में पता चला कि इंदिरा गांधी नाम की किसी नेता को उसके ही पुलिस वालों ने गोली मार दी। मुझे दोस्‍तों ने बताया तो मैं  उन पर खूब हंसा। बोला ''पता है इंदिरा गांधी के पास बॉडीगार्ड है, मेरे पापा बताते हैं कि उसके पास कोई नहीं जात सकता।'' बाद में समझ आया कि वो पुलिस वाले बॉडी गार्ड ही थे। जैसे तैसे प्राथमिक स्‍तर की शिक्षा गंगा चिल्‍डन स्‍कूल में पूरी हुई। अंग्रेजी माध्‍यम से एक हिन्‍दी माध्‍यम के विद्यालय में प्रवेश लिया। हम तीन दोस्‍त थे अनुराग, अशोक और विजय शंकर। साथ साथ रहते थे। यहां भी रिसस में अपना टिफन नहीं करते थे। स्‍कूल के बाहर ही कचौड़ी समौसों की दुकानें थी। बर्फ का छत्‍ता मिलता था। उसी से  काम चलता। तीनों दोस्‍त जैसे तैसे मैनेज करते। एक दिन एक मित्र के घर खाना था, सुबह से ही हम तीनों मित्रों की मंडली वहीं डटी  हुई थी, तब तक हम स्‍कूल से महाविद्यालय में प्रवेश कर चुके थे। उस मित्र के घर पर सैकड़ों लोगों के खाने का भार जैसे हम पर ही था। हम सुबह से रात तक डटे रहे। रात को अशोक ने बताया कि वो सुबह जोधपुर एक स्‍काऊट शिविर में जा रहा है। वो गया वापस भी जोधपुर से रवाना हुआ लेकिन सड़क दुर्घटना में उसे भगवान ने हमारी मण्‍डली से किनारे कर दिया। वो वापस नहीं आया। हां वहां उसका खींचा हुआ फोटो जो उसने नहीं दिया, वो मेरे पास है। मैंने कई जन्‍म दिन अशोक के साथ ही मनाए थे, इसलिए उसकी याद ज्‍यादा पुरानी नहीं है। हां वर्ष गिनते हैं तो पंद्रह का आंकड़ा बड़ा लगता है। मुझे याद है जब मैंने विजयशंकर को अशोक के निधन का समाचार दिया तो वो हंस पड़ा, सोचा मैं मजाक कर रहा  हूं। हकीकत ने तो उसे भी रुला दिया। आज भी अशोक के घर के आगे से निकलता हूं तो बचपन सामने खड़ा दिखता है। उसकी बहन मुझे आज भी ''अनुराग भैया'' कहती है तो अशोक पास ही खड़ा नजर आता है। उसके पापा शिक्षा विभाग में मिलते हैं तो मुंह पर अशोक शब्‍द आते आते रुक जाता है। ज्‍यादा मैं यहां लिख नहीं सकूंगा। अपना तो स्‍टाइल है कि  जिस बात से दुखी होते हैं, उसे ही बंद कर देते हैं। गमों का लावा छिपा है इस दिल में, न जाने कब फूट जाए, पर खुशियां इतनी मिली है मां की छांव में कि गम फीके हो जाते हैं।
बातें और भी है लेकिन बाकी अगली बार । लिखने से दिल का बोझ हल्‍का होता है, इसलिए कल कुछ और लिखेंगे।

कागज की कश्‍ती थी, पानी का किनारा था
खेल की मस्‍ती थी, दिल अपना आवारा था
कहां आ गए, समझदारी के दल दल में
वो नादान बचपन कितना प्‍यारा था।
(ये संदेश मेरे मित्र अमित ने मुझे 35वें वर्षगांठ पर एसएमएस किया।)