Monday, May 31, 2010
भारत और पाकिस्तान कब होंगे दोस्त
मैंने अपने ब्लॉग पर पहले भी पाकिस्तान के बारे में बहुत कुछ लिखा है। जब मेरी लेखनी पाकिस्तान के खिलाफ हुई तो बहुत से साथियों ने मेरी बात का समर्थन किया और आज जब मैं पाकिस्तान के साथ सकारात्मक विचारधारा रखने के लिए आम लोगों से पहल की बात करता हूं तो मेरे आलेख को विशेष तरजीह नहीं मिलती। कारण साफ है कि हम पाकिस्तान को दुश्मन शब्द का एक पर्याय मानते हैं। इस हम में सिर्फ वो लोग हैं जो कभी किसी अच्छे पाकिस्तानी से नहीं मिले। इस हम में सिर्फ वो लोग हैं, जिनका कोई पाकिस्तान में नहीं है, इस हम में सिर्फ वो लोग हैं जिनका पाकिस्तान से कोई जुडाव नहीं रहा है। इस हम में सिर्फ वो लोग है जिन्होंने पाकिस्तान का मतलब क्रिकेट वाला पाकिस्तान ही समझ रखा है, जिसमें कभी मियादादं जम्प मारकर हमारे खिलाडी को चिडाता है तो कभी कुछ और मूर्खतापूर्ण हरकतें होती है। मैंने पाकिस्तान के एक पत्रकार के साथ छह दिन गुजारे हैं, जिसका उल्लेख मैं अपने पूर्व के आलेखों में कर चुका हूं। मैं आज भी आफताब को भुल नहीं पाता, सुबह उठते ही अल्लाह को याद करने के साथ ही मुझे चाय बनाकर देता। जो काठमांडु की गलियों में मुझसे घंटों बतियाता और कहता कि पाकिस्तान में अमिताभ बच्चन पहले है और परवेज मुशर्रफ बाद में। उस समय पाकिस्तान के कराची में अमिताभ बच्चन के बडे बडे होर्डिंग भी लगे हुए थे। मुझ आफताब की वो बातें याद हैं जिसमें उसने बताया कि हमारे यहां भी मंदिर है, हमारे यहां उनका सम्मान होता है। मैंने विरोध किया और बोला मंदिर तो आपके यहां तोडे जा रहे हैं, उसने तपाक से कहा, मंदिर क्यों मस्जिद भी टूट रही है। पिछले दिनों लाहौर में मस्जिदों पर हमले की बात सुनकर मुझे उसकी बात फिर याद आ गई। यह सही है कि पाकिस्तान में सिर्फ मंदिर ही नहीं टूटते मस्जिद भी टूटती है। उसकी एक और बात मुझे याद है कि हमारे से ज्यादा मुसलमान तो भारत में है, फिर हम अकेले मुसलमानों के ठेकेदार थोडे ही है। उसको दर्द था कि पाकिस्तानी की सियासत ने भारत के साथ रिश्तों को इतना कडवा बना दिया है कि हम क्रिकेट के मैच की तरह ही इस मसले को देखते हैं। यह समझते ही नहीं कि क्रिकेट तो गेम है, उसमें खिलाडी तीखापन नहीं रखेगा तो हार जाएगा। इतना ही नहीं द डॉन के एक पत्रकार जिसका नाम मैं भूल रहा हूं, से जब हमने कहां कि भारत में तो पाकिस्तान को लेकर इतना गुस्सा है कि हर कोई चाहता है कि लाहौर जाकर तिरंगा फहरा दूं। इस पर उसने कहां, आपका स्वागत है, मेरा विश्वास है कि जब आप लाहौर पहुंचेंगे तो आपकी नफरत कम हो जाएगी। यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि दोनों पाकिस्तानी पत्रकारों से तब इतना प्रभावित नहीं हुआ, लेकिन आज मानता हूं कि उनकी बात सही थी कि दोनों ही देशों की हालत एक जैसी है, परेशानी एक जैसी है, हम तो भाई थे और भाई ही रहकर जी सकते हैं। सियासी चालबाजियों में पाकिस्तान का निकम्मापन कम हो जाए तो निश्चित रूप से भारत सरकार के प्रयास सफल हो सकते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की चलाई बस प्यार का पैगाम ला सकती है, बशर्ते रिश्तों की खटास पहले कम तो हो। यहां मैं सभी ब्लॉगर साथियों से पूछना चाहूंगा कि क्या भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध नहीं सुधर सकते। क्या भारत और पाकिस्तान की परेशानी एक जैसी नहीं है। क्या भारत और पाकिस्तान मिलकर दुनिया में बडी शक्ति रूप में स्थापित नहीं हो सकते। अगर हां, पहल कहां से होनी चाहिए। इधर से या उधर से। सियासत से इंसानियत से।
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