Thursday, February 26, 2009
पधारो म्हारे सैर बीकानेर
शहर के ठीक बीच में खडे होकर किसी भी दिशा में पांच किलोमीटर के लिए निकल जाए आपको समुंद्र नजर आएगा।मिट़टी का समुंद्र। दूर तक इंसान तो क्या घास फूस भी नहीं दिखेगा। कुलाचे मारता हरिण आपका मनोरंजन कर सकता है तो कभी कभार ऊंट पर लदे बच्चे आपके आगे से गुजरते हुए अपनी हंसी से आपको गुदगुदा सकते हैं। ढेढ देहाती अंदाज में यहां का ग्रामीण सिर पर पगडी बांधे आपको जींस और टी शर्ट में अचरज भरा देख सकता है। औरतों का चेहरा देखना आपकी किस्मत में नहीं होगा, क्योंकि मुंह ढककर चलने की परम्परा को यहां के बाशिन्दे आज भी निभा रहे हैं। यह बीकानेर है। आप शायद बीकानेर को पापड और भुजिया के लिए जानते होंगे या फिर हमारे नए सितारे संदीप आचार्य, राजा हसन और समीर (तीनों युवा गायक) के कारण जानते होंगे। मैं आपको अपने शहर में इसलिए लाया हूं क्योंकि यहां घूमने का मजा इन्हीं दिनों में है। आप यहां आ नहीं सकते, इसलिए यहां की मस्ती से मैं आपको नियमित रूप से रूबरू करने का प्रयास करूंगा। इस शहर की मस्ती दुनिया के किसी भी शहर के आगे ज्यादा चमक रखने वाली है। यहां के लोग इतने संतोषप्रद है कि बडी से बडी समस्या को झेल लेंगे लेकिन झगडा नहीं करेंगे। यहां हिन्दू भी है और मुसलमान भी। दोनों बडी संख्या में है फिर भी कभी साम्प्रदायिकता ने इस शहर को अपनी जद में नहीं लिया। ऐसे मुसलमान भी है जो ब्राह़मणों की तरह प्याज तक नहीं खाते तो ऐसे हिन्दू भी है जो मुसलमानों के घर को अपना परिवार समझते हैं। होली हो या दीवाली मुस्लिम मोहल्ले भी कम रोमांच में नहीं होते। घर पर दीपक भले ही न जले लेकिन पटाखों की धूम और नए कपडे पहनकर शहरभर में घूमने में वो भी पीछे नहीं। रोजे के वक्त हिन्दूओं के घर खाना बनता है और मुस्लिम के घर जाकर रोजा खुलवाया जाता है। ऐसे परिवारों की संख्या लम्बी चौडी है जो किसी न किसी रोजेदार को अपने घर का खाना खिलाने की होड में रहता है। यहां जगह जगह दरगाहें हैं। हर छोटे बडे काम के लिए हिन्दू इन्हीं दरगाहों के आगे मत्था टेकते हैं और काम होने पर फिर मत्था टेकने जाते हैं। आपने बडे शहरों को रात में जागने के किस्से तो सुने होंगे, अब मेरे शहर का नाम भी इसी सूची में डाल दें। बीकानेर शहर रात को भी जागता है। पान की दुकान रात को दो बजे से पहले बंद नहीं होती और ताश कूटते कूटते चार बजाना यहां हर चौक का शगल है। यहां चौक ठीक वैसे ही हैं, जैसे घर में होते हैं। आप नींद से उठकर सीधे अपने घर के चौक (आंगन) में पहुंचते होंगे, वहीं बैठकर सोफे पर चाय पीते होंगे। मेरे शहर में लोग उठकर सीधे घर से बाहर निकलते हैं चौक में रखे पाटे पर बैठते हैं और वहीं चाय पीते पीते दिनभर का कार्यक्रम तय करते हैं। इन्हीं पाटों पर दिन में वृद़ध जन अपनी टीम के साथ बैठकर अखबारों को खंगालते हैं, हर खबर की मुरम्मत करते हैं, अमेरिका से लेकर पास वाले चौक तक की खबरों का आदान प्रदान करते हैं, चर्चा करते हैं, कभी कभी बहस करते हैं और बहस बाद में बोलचाल तक बदल जाती है। अगले ही पल बहस को खत्म करने के लिए रबडी मंगा ली जाती है। जिसने ज्यादा जोर से बोला उसे रबडी के उतने ही ज्यादा पैसे देकर जुर्माना भरना होगा। यहां गलियां छोटी और संकडी है लेकिन दिल बहुत बडे हैं। चौक में सफाई के लिए आने वाली नगर निगम की सफाई कर्मचारी का विवाह चौक वाले कर देते हैं क्योंकि उसकी लडकी उनके देखते देखते बडी हो गई तो चौक की भी बेटी हुई ना। यहां बडे से बडा गम हवा हो जाता है और बडी से बडी खुशी बंटती बंटती सभी का आल्हादित कर देती है। पाटा यानि चौक में लगा लकडी का लम्बा चौडा तख्त। इसी पाटे पर ब्याह शादी में दुल्हा बैठता है और इसी पाटे पर शोक के दिनों में बैठक होती है। हर पाटे का अपना इतिहास है और पाटे का अपना संघर्ष है। इन पाटों ने शहर को बदलते देखा है और संस्कृति के बदलते अंदाज को भोगा है, फिर भी कहूंगा पाटों के दम पर ही इस शहर की जीवनशैली आज तक जीवित है। अब आप सोचेंगे कि मैं आपको अचानक अपने शहर की तरफ क्यों ले आया। दरअसल मेरे शहर में इन दिनों सर्वाधिक रौनक है। पता नहीं दूसरे शहरों में होली कैसे और कितने दिन मनाते हैं लेकिन मेरे शहर बीकानेर में होली शुरू हो चुकी हैं। चंग की थाप हर किसी को अपनी ओर खींच रही है तो हल्की सर्द हवाओं के बीच जगह जगह चंग की धमाल पर स्वांग नाचते दिख सकते हैं। अगर आप पसन्द करें तो मैं मेरे शहर की होली से आपको हर रोज रूबरू करवा सकता हूं। सिर्फ चंग ही नहीं हर्ष और व्यास जाति के बीच होने वाले डोलची खेल में भी आपको ले जाऊंगा। जहां एक एक बार करके हर्ष और व्यास जाति के लोग एक दूसरे की पीठ पर पानी से वार करते हैं। यह वार इतना घातक होता है कि दिल में उतर जाता है, जितना तेज पडता है प्यार उतना ही बढता है। यहां रंगकर्म का अनूठा अंदाज ''रम्मत'' सभी को चौंकाने वाला है। साठ वर्ष का अदाकार जब रात से सुबह तक मंच पर अभिनय करते करते सुबह डॉयलाग बोलता है तो एक किलोमीटर दूर भी लोगों को आवाज बिना माइक के सुनाई देनी है। अगर आप बीकानेर की होली से रूबरू होना चाहते हैं तो इच्छा जताए ताकि मैं उतने ही जोश के साथ लिख सकूं।
Wednesday, February 25, 2009
जीत में क्यों ढूंढ रहे हैं हार ?
हम भारतीय ऐसे क्यों हैं। हमें अपनी जीत पर खुशी क्यों नहीं होती। हम हर जीत में एक हार को क्यों ढूंढ लेते हैं। हम वैसे क्यों नहीं हो जो हमारी जीत पर अपना नाम अटकाकर खुशी मना रहे हैं। जी, बिल्कुल सही मैं 'स्लमडॉग मिलेनियर' की ही बात कर रहा हूं। कल जब से भारत को ऑस्कर मिला है तब से दो तरह के लोग सामने आए। एक वो जो इसे खुशी के इजहार का वक्त बता रहे तो दूसरे वो जो इसे हमारी गरीबी का मजाक बता रहे हैं। गरीबी का मजाक तो उडा है लेकिन क्या ऐसा पहली बार हुआ है, क्या ऑस्कर में सिर्फ भारतीय गरीबी पर बनी फिल्म को ही पुरस्कृत किया गया है, क्या इससे पहले किसी दूसरे देश की गरीबी पर बनी फिल्म को ऐसा सम्मान नहीं मिला। क्या भारत में ही गरीबी है। आज तो स्वयं अमेरिका गरीबी की दहलीज पर खडा है। कल उस पर भी फिल्म बनेगी और परसो उसे भी ऑस्कर मिलेगा। स्माइल पिंकी में भारतीय गरीब लडकी पिंकी और एक बीमारी को लेकर साधारण फिल्म बनाई गई। फिल्म भी नहीं बल्कि डोक्यूमेंटी बनाई गई। 'स्लम डॉग मिलेनियर' में जो कुछ दिखाया गया वो सामाजिक ताने बाने को दिखाने वाला है। अगर हमें 'लगान' पर यह पुरस्कार मिलता तो हम इसमें भी अंग्रेजीयत का आभास होता। क्या सत्यजीत रे को मिला पुरस्कार भी किसी अंग्रेजीयत का असर था। क्या गांधी फिल्म के लिए मिला पुरस्कार भी किसी गोरी चमडी का कमाल था। क्या इस बार रहमान को मिला पुरस्कार भी अंग्रेजों के कारण मिला। क्या फिल्म में काम कर रहे भारतीय कलाकारों की अदाकारी ऐसी नहीं थी जो फिल्म को पुरस्कार के योग्य बना देती है। क्या इन भारतीय कलाकारों के बी फिल्म को इतना बडा सम्मान मिल सकता था। शायद नहीं। भले ही टीम का कोच गैरी कस्टर्न हो या फिर ग्रेग चैपल रन तो धोनी और सचिन को ही बनाने होंगे। इस फिल्म में भी निर्देशक भले ही कोई हो खिलाडी तो हमारे ही है। हमें तो यह साबित करना है कि जो देश दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनने जा रहा है वो हर क्षेत्र में श्रेष्ठ है। भारत अब किसी भी क्षेत्र में रुकने वाला नहीं है। हमें भी जीत में सिर्फ जीत ही देखनी चाहिए। वरना पीछे रहने की हमारी सोच और मजबूत होती जाएगी। हम श्रेष्ठ है इसलिए हमें ऑस्कर मिला। आगे भी मिलेगा। इतिहास गवाह है जब जब भारतीयों ने किसी क्षेत्र में अपनी काबलियत साबित करनी चाही है तब तब हमने ऐसा किया है। स्लमडॉग
Monday, February 23, 2009
हम फिल्मों के 'भी' सरताज ''थैंक्स रहमान & पिंकी ''
बधाई हो भारत। उत्सव का अवसर है, मौका है झूमने का, गाने का, आतिशबाजी करने का, गलियों में 'हो' 'हो' करके अपना उत्साह दिखाने का। मुझे पूरी तरह तो नहीं लेकिन कुछ कुछ याद है कि जब कपिल इलेवन ने क्रिकेट का विश्वकप जीता तो खूब हो हल्ला हुआ था। मेरे शहर बीकानेर में जैसे हर घर में विवाह शादी है, हर कोई पटाखे छोड रहा था। आज सुबह साढे छह बजे से ग्यारह बजते बजते भारत ने एक दो नहीं बल्कि 9 विश्व खिताब जीत लिए लेकिन पटाखे तो दूर किसी ने पचास पैसे का एसएमएस करके भी बधाई नहीं दी। ऑस्कर में सत्यजीत रे को लाइफ एचीवमेंट पुरस्कार मिला तब भी कुछ भारतीय फिल्मकारों ने एक दूसरे को बधाई दी और बात खत्म। आमीर खान जब से नोमिनेट हो रहे थे तब से उनके लिए दुआ कर रहे थे, आज रहमान ने आमीर का यह सपना पूरा कर दिया। किसी भी भारतीय को यह जीत कम नहीं आंकनी चाहिए। बात सिर्फ फिल्मों की नहीं है, बात ऐसे क्षेत्र में विजय पताका फहराने की है जिसमें प्रतिस्पद़र्धा हर कदम पर है। क्रिकेट खेलने वाले दुनिया के दो दर्जन देश भी नहीं है लेकिन फिल्म बनाने वाले देशों की संख्या सैकडों में है। ऐसे में पश्चिमी देशों में तो फिल्म एक पूजा है, पैशन है। हर फिल्म दूसरे से बेहतर है। इस बीच भारतीय फिल्मकारों का प्रयास सफल हुआ तो हमें प्रसन्नता होनी चाहिए। आज जब भारत हर क्षेत्र में श्रेष्ठता साबित कर रहा है, ऐसे में फिल्म के क्षेत्र में मिली सफलता निश्चित रूप से सराहनीय है। उत्सव योग्य है। 'स्लमडॉग मिलेनियर' हो या फिर 'स्माइल पिंकी' दोनों के कलाकारों को सिर माथे चढाना ही होगा। अल्ला रखा रहमान भारतीय सिनेमा में अब सत्यजीत रे के नजदीक पहुंच गए हैं और कई बडे दिग्गजों को पीछे छोड चुके हैं। देश में इन दिनों क्रिकेट का बुखार ज्यादा है इसलिए मैं उसी भाषा में कहूंगा 'रहमान फिल्मों के धोनी है' सच में सब को धो डाला। भारतीय फिल्म के इस सबसे बडे दिन पर सभी ब्लॉगर्स को बहुत बहुत बधाई। आज के दिन को भारतीय फिल्म में विशेष रूप से न सिर्फ केवल आज बल्कि हर वर्ष मनाया जाना चाहिए। कैसे मनाया जाए यह फैसला आप करें और अपना सुझाव दें। हम ब्लॉगर्स की भी जिम्मेदारी है कि हम इस बडे दिन को विशेष स्वरूप में मनाने के लिए सुझाव दें। मैं प्रयास करूंगा कि जो भी सुझाव आएंगे उन्हें आगे तक पहुंचाऊंगा। photo by bbc news. (with Thanks)
Sunday, February 22, 2009
इस देश में ही आना लाडो
मेरा आठ वर्ष का बेटा इस बात से अनभिज्ञ है कि लडका और लडकी में क्या भेद हैं ? उसने मुझे पिछले दिनों एक अजीब सवाल किया। सवाल सुनकर मैं दंग था कि उसे यह सवाल पूछने की क्या जरूरत आ गई? उसने पूछा कि दुनिया के किस देश में लडकी को पैदा होते ही मार दिया जाता है? निश्चित रूप से यह सवाल उसकी उम्र और मानसिक स्तर से हटकर था। मैंने सवाल को टालते हुए उससे किनारा किया तो उसने स्वतस्फूर्त जो जवाब दिया वो मुझे और भी चकित करने वाला था। उसने कहा कि डैडी भारत में बेटी को पैदा होते ही मार देने की परम्परा रही है। मेरे बेटे की किसी भी किताब में यह सवाल नहीं है। मेरे घर में चार लडके और एक लडकी है। कभी ऐसा भेद नहीं हुआ कि उसे यह सवाल करने पडे। जिस सामाजिक व्यवस्था में वो पल बढ रहा है, वहां से भी ऐसा सवाल उपजने का सवाल पैदा नहीं होता। वो एक छात्र विद्यालय में पढता है लेकिन लडकियों के बारे में ऐसे विचार तो वहां भी नहीं रखे जाते। उसे तो अपने सवाल का जवाब कहीं न कहीं से मिल गया लेकिन मेरे लिए चिंता बढ गई कि उसने यह सवाल उठाया कहां से ? मैंने अपने भतीजे से पूछा कि यह सवाल क्यों किया ? बारह वर्षीय भतीजे पीयूष ने बताया कि टीवी में एक नाटक आ रहा है जिसमें बताया गया कि बेटी को पैदा होते ही मार दिया जाता है। बेटिया होती ही ऐसी है। छानबीन करने पर पता चला कि मेरे बेटे सहित घर के पांचों बच्चे इन दिनों टीवी पर प्रसारित हो रहे नाटक को नियमित देखते हैं। इस नाटक में बेटी को अभिषाप के रूप में बताया गया है। भले ही नाटक का भाव शुद़ध है लेकिन वर्तमान परिवेश में जिन बच्चों को बेटे और बेटी में भेद नहीं पता, उन्हें टीवी का यह सीरियल भेद बता रहा है। इस सीरियल में वर्तमान युग में बेटियों के साथ हो रही ज्यादती को दर्शाया गया है। एक तरफ नाटक के किरदार मोबाइल फोन पर बात करते दिखाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ दस वर्ष की बच्ची को ससुराल में और ग्यारह वर्ष की बेटी को बाल विधवा के रूप में दिखाया गया है। जहां तक मेरा मानना है देश में अब बाल विवाह की स्थिति खत्म होने के कगार पर है। जो बाल विवाह हो रहे हैं वो भी सोलह से 18 वर्ष के बीच के हैं। वैसे भी इतनी जागरुकता आ चुकी है कि लोग ही ऐसे विवाह रुकवा देते हैं। बाल विधवा जैसे हालात भी अब नहीं है। फिर भी कहीं ऐसी दुर्घटना हो भी जाए तो ससुराल वाले इंसानियत के दम पर बच्ची को अपनी पलको पर बिठाते हैं। मैने तो ऐसे किस्से भी देखे हैं कि वयस्क बच्ची को शादी के कुछ माह में ही विधवा होने पर ससुराल वाले धूमधाम से दूसरी शादी कर देते हैं। अगर किसी ठेठ ग्रामीण अंचल में ऐसा हो भी रहा है तो वहां ऐसे नाटक देखने वाले नहीं होंगे। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस परिवेश में हम बाल विवाह और बाल विधवा जैसे संकट से दूर होना सीख रहे हैं, तब इसी को आधार बनाकर नाटक दिखाना कहां तक जायज है। हम क्यों छोटे बच्चों को यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि बेटी होना अभिषाप है। उनके कारण घर वालों को जगह जगह नाक रगडनी पडती है। ऐसे नाटकों का प्रसारण कहां तक जायज है जो बडे बर्तन में जिंदा बेटी को मारते हुए दिखाए। हम क्यों यह साबित करना चाहते हैं कि ऐसी व्यवस्था हमारे देश में रही है। बेहतर होगा कि हम ऐसे सीरियल तैयार करें जो बालिका वधु के बजाय बालिका प्रतिभा के रूप में दिखे। यह सुनाया जाए कि 'लाडो आना ही होगा इस देश में।' यह मेरा विचार है कि ऐसी सामग्री नहीं परोसनी चाहिए जिससे नई पीढी बालक और बालिका में भेद करना सीखे। देश और समाज की भलाई टीआरपी से नहीं बल्कि सांस्कृतिक ताने बाने को सुधारने से होगी। अब तो ऐसी दादी भी नहीं जो लडकियों से इतनी घृणा करें। देश में उन लोगों की संख्या बढ रही है जो एक लडकी के बाद भी 'परिवार कल्याण' में विश्वास करने लगते हैं।
Thursday, February 12, 2009
क्या सुधर गया पाकिस्तान?
आखिरकार पाकिस्तान ने मान लिया कि मुम्बई बम धमाकों की व्यूहरचना उसी की सरजमीं पर रची गई थी। अब उसे यह भी मान लेना चाहिए कि पाकिस्तान की धरती से न सिर्फ भारत में बल्कि दुनियाभर में आतंकवाद को बढावा दिया जा रहा है। मुम्बई बम धमाकों की जिम्मेदारी पाकिस्तान ने तब ली है, जब भारत ने ऐसे सबूत प्रस्तुत किए, जिन्हें गलत ठहराना उसके बूते से बाहर था। यह भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के लिए बडी सफलता है तो भारतीय कूटनीति की विजय भी। भारत ने धमाकों से संबंधित प्रमाण जुटाने में त्वरित गति दिखाई तो सबूतों की फाइल पाकिस्तान सहित दुनिया के अन्य देशों को भी दी ताकि पाक अपनी आदत के अनुरूप इस बार झूठ नहीं बोल सके। किसी भी परिस्थिति में पाकिस्तान ने यह स्वीकार किया हो, हमें इसका स्वागत ही करना चाहिए। भारत सरकार की तरफ से प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम के बयान भी पाकिस्तानी कार्रवाई का स्वागत कर रहे हैं। अगर पाकिस्तान का यह रुख बरकरार रहा तो निश्चित रूप से उसकी धरती पर पनप रहे आतंकवाद को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है। अमरिका सहित दुनिया के सभी आतंकवाद प्रभावित देश इस संकट में पाकिस्तान के साथ खडा होकर उसे आतंकवाद मुक्त देश बनाने में मदद कर सकता है। पाकिस्तानी पत्रकार मित्रों के साथ जितनी बार बातचीत हुई कभी मुझे ऐसा नहीं लगा कि पाकिस्तान का आम आदमी किसी तरह के आतंकवाद से सहमत है। उल्टा स्वयं पाकिस्तानी आतंकवाद से पीडित है। हालात इतने बदतर है कि अब भारत से ज्यादा आतंककारी घटनाएं पाकिस्तान में होने लगी है। पहले से चरमराई अर्थव्यवस्था पाकिस्तान के होनहार और कुशाग्र युवा वर्ग को आगे आने का मौका नहीं दे रहा। आजादी से पहले जिस तरह भारत के युवाओं को विदेश में पढकर ही अपना भविष्य बनाना होता था ठीक वैसे ही इन दिनों पाकिस्तान में हो रहा है। वहां का युवा भी भारत की तरह आगे बढकर स्वयं को स्थापित करना चाहता है। पाकिस्तानी पत्रकार बतुल ने पिछले दिनों मुझे मेल के माध्यम से बताया कि वो अब पत्रकार नहीं है बल्कि पाकिस्तान की असिस्टेंट ऑडिट जनरल हो गई है। उसका कहना था कि वो पाकिस्तान ब्यूरोक्रेट का हिस्सा हो गई है। नेपाल में हमारी मुलाकात में भी उसका यही सपना था कि वो ब्यूरोक्रेट बने। न सिर्फ बतुल बल्कि पाकिस्तान के अधिकांश युवा कुछ कर गुजरने की ललक रखते हैं। लेकिन वहां के हालात इसकी इजाजत नहीं दे पाते। अव्यवस्था के आलम में आम आदमी अपनी इच्छाशक्ति के मुताबिक काम नहीं कर पात। बतुल आम परिवार से नहीं है और उसने पत्रकारिता का मुकाम हासिल कर वहां की व्यवस्था को समझा। तभी ब्यूरोक्रेट बन पाई। दरअसल इस अव्यवस्था का सबसे बडा कारण आतंकवाद है। पाकिस्तान से आतंकवाद का खात्मा अब न सिर्फ दुनिया के लिए बल्कि स्वयं पाक के लिए भी अवश्यम़भावी हो गया है। जिस गति से पाकिस्तान की विकास दर गिरती जा रही है, करीब उतनी गति से वहां आतंककारी घटनाएं बढ रही है। बेरोजगारी का ग्राफ वहां भारत से भी ज्यादा गति से आगे बढ रहा है। भारत की मजबूत आर्थिक व्यवस्था ने यहां काफी हद तक मध्यम श्रेणी के परिवारों को सहजता से जीवन यापन का अवसर दे रखा है लेकिन पाकिस्तान में मध्यम श्रेणी का परिवार संकट में है। पाकिस्तान में आम आदमी का औसत वेतन भारतीय युवक की तुलना में काफी कम है। हम छठा वेतन आयोग लागू करवाकर लिपिक को ही पंद्रह से बीस हजार रुपए महीने के दे रहे हैं जो पाकिस्तान में किसी न किसी अधिकारी को मिलते हैं। हालात कुछ भी हो अब भारत और पाकिस्तान को एक मंच पर आकर आतंकवाद के खात्मे के लिए संघर्ष करना ही होगा। जिस तरह अमरिकी प्रधान बराक ओबामा पाकिस्तानी आतंकवाद की खिलाफत कर रहे हैं उससे पाक पर दबाव भी बढा है, भारत को इसका सकारात्मक पक्ष लेते हुए कार्रवाई करनी चाहिए। मुम्बई धमाकों में पाकिस्तानी सहयोग के आधार पर जांच को आगे बढाना चाहिए। यह भी सत्य है कि पाकिस्तान को पूरी तरह से सहजता से लेना भी भूल होगी। निश्चित रूप से भारतीय रक्षा, विदेश और गृह मंत्रालय पाकिस्तानी तंत्र से अधिक सूझबूझ रखने वाला है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि दोनों देशों में आतंकवाद खत्म हो। बिगडा हुआ भाई सुधर जाए और अब नहीं सुधरे तो दो कानों के नीचे लगाकर सुधार दिया जाए। कुछ अच्छा करने के लिए कई बार कडे कदम भी उठाने पडते हैं।
Wednesday, February 11, 2009
गिलहरी और मैं
Sunday, February 8, 2009
बेरोजगारों के देश में बेरोजगारी मुद़दा नहीं?
भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर मंदिर का राग अलापना शुरू कर दिया है। तय है कि चुनाव में मंदिर ही मुख्य मुद़दा होगा, कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को राहत पैकेज देने शुरू कर दिए हैं। तय है कि अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति अपनी निष्ठा जताते हुए चुनावी मैदान में उतरेंगे। कॉमरेड भी किसी आर्थिक नीति या वैश्चिक मंदी पर अपने भाषण देते देते चुनाव लड लेंगे। बसपा बहुजन के साथ अब अगडी जातियों में अपनी निष्ठा जताएगी तो समाजवादी पार्टी समाज की चिंता किए बिना गरीब का दुखडा रोकर अपना काम निकालेगी। जो कभी जनता का दल था वो एक बार फिर काठ की हांडी चढाकर अपना काम निकालेगी और जनता देखती रह जाएगी। देश में और भी पार्टियां है जो लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरेगी और अपना अपना तमाशा दिखाकर चलती बनेगी। क्या आपको कभी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम देश में महज वोट देने के लिए पैदा हुए हैं। हमारा वजूद सिर्फ एक वोटर का रह गया है। हमारी समस्या से देश के लोकतंत्र को सरोकार नहीं और सच कहें तो हमें अपने काम से मतलब है लोकतंत्र के जाए भाड में हमारी बला से। न सिर्फ देश की राजनीतिक पार्टियां बल्कि इन राजनीतिक पार्टियों को पोषित करने वाली आम जनता ने भी अपना दायित्व निभाना बन्द कर दिया है। हमारी ही कमजोरी है कि राजनीतिक पार्टियां खुद ही अपना मुद़दा तय करती है और चुनावी दिनों में अपनी 'प्रस्तुति' देकर चलती बनती है। यह प्रस्तुति हमें प्रभावित करती है तो जीत जाती है और नहीं तो संसद के दूसरे कोने में बैठकर गला साफ करने की छूट मिल जाती है। दुख की बात है कि इस देश में मंदिर का मुद़दा उठाने में भाजपा फिर शर्म नहीं कर रही। कांग्रेस अल्पसंख्यकों के नाम पर दूसरे पक्ष को खुश करने में कोई कोर कसर नहीं छोड रहा। चिंता की बात है कि देश जिस समस्या के लिए सबसे ज्यादा परेशान है, वो मुद़दा ही नहीं है। मैंने इस देश में 'आलू प्याज' के नाम पर सरकार बदलते देखी है लेकिन बेरोजगारी को किसी ने मुद़दा नहीं बनते नहीं देखा। ऐसे नेता भी नहीं देख पा रहा जो बेरोजगार को रोजगार दिलाने की बात उठाए। 'विजय' मेरे आलेख का पात्र नहीं है बल्कि हकीकत है। महज 20 वर्ष की उम्र में उसने अपने पैरों पर खडे होने का निर्णय कर लिया। दिनरात मेहनत कर जैसे तैसे पढाई पूरी की। पहले एमआर के रूप में काम किया। अच्छा काम करने के कारण देश की प्रमुख कम्पनी में अच्छी पोस्ट पर पहुंच गया। वेतन भी अच्छा हो गया। देश में इंश्योरेंस कम्पनियों की बाढ आई तो विजय भी उसके साथ बहता चला गया। एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी और दूसरी से तीसरी कम्पनी में पहुंचकर उसने लगातार अपने वेतन का ग्राफ ऊपर बढाना चाहा। हर कोई ऐसा ही चाहता है तो उसने कोई गलत नहीं किया। सब कुछ ठीक चल रहा था विजय का वेतन भी वार्षिक पांच लाख रुपए तक पहुंच गया। इस बीच अचानक कम्पनी ने एक पत्र भेजा और राजा को कम्पनी से 'आवश्यकता नहीं है' का बहाना करके निकाल दिया गया। पिछले तीन महीने में उसकी हालत बिगड चुकी है, चेहरे की लाली गायब हो गई, वो फिर से अपने शहर जाने में संकोच कर रहा है क्योंकि 'लोग क्या कहेगे' की चिंता उसे सता रही है। विजय सिर्फ उदाहरण है। निश्चित रूप से इस देश में पिछले दिनों में लाखों बेरोजगारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पडा। बैंगलूरु में ही हजारों बेरोजगार किराए के कमरों में इस उम्मीद में बैठे हैं कि एक दिन उन्हें फिर से बुलावा आएगा। बैंगलूरू में रह रहे मेरे एक मित्र की बात माने तो वहां हजारों बेरोजगार अपनी योग्यता के विपरीत बहुत छोटा काम करके जिंदगी बस बसर कर रहे हैं। निश्चित रूप से इन लाखों युवाओं की बेरोजगारी का सीधा असर इनके परिवार पर भी पड रहा है, थोडा और चिंतन करें तो इन्हीं बेरोजगारों के कारण देश में विकास की दर बढी थी लेकिन अब इन्हें ही किनारे करके क्या देश का विकास कमजोर नहीं होगा। हजारों लाखों लोगों की इस समस्या के बारे में आखिर कोई पार्टी चिंतित क्यों नहीं है। अधिकांश कम्पनियों ने मंदी के नाम पर युवाओं को कम्पनियों से निकाल दिया। जिस तरह तनाव में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं ठीक वैसे ही बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करने वालों की संख्या बढती जा रही है। एक मंदिर के लिए देशभर में आंदोलन करने वाली पार्टी के लिए बेरोजगारी का मुद़दा सिर्फ कागजों तक क्यों हैं ? दुनियाभर में स्वयं को गैर सांप्रदायिक बताने वाली कांग्रेस एक वर्ग के लिए समर्पित होने के बजाय बेरोजगारों के लिए क्यों नहीं बोल रही? कांग्रेसनीत गठबंधन जो लम्बा चौडा पैकेज मंदी के नाम पर दिया, उससे कितने बेरोजगार फिर से नौकरी पर चढे ? महज उच्च वर्ग को लाभान्वित करने की नीति कब खत्म होगी। इस देश में बेरोजगारी कब मुददा बनेगा। इस देश के युवा को लोकतंत्र कब समझेगा और देश का युवा लोकतंत्र को कब समझेगा?
Thursday, February 5, 2009
महेंद्र सिंह धोनी सिर्फ खिलाडी नहीं है ?
आखिर महेंद्र सिंह धोनी में ऐसा क्या है कि हम लगातार नौ एक दिवसीय मैच जीत गए। 20'ट़वेंटी का वर्ल्ड कप जीत गए। सिर्फ धोनी ही नहीं बल्कि उसके साथ दूसरे खिलाडी भी जमकर रन बना रहे हैं। जिस भारतीय टीम को केन्या तक से हार का मुंह देखना पडा और गुरु ग्रेग तक सुधारने में विफल हो गए। उस भारतीय टीम की दिशा और दशा रांची के इस खिलाडी ने कैसे बदल दी ? इस सवाल के पीछे किसी तरह की चिंता नहीं है बल्कि चिंतन की आवश्यकता है। दरअसल धोनी ने टीम में अलग माहौल को स्थापित किया है। यही गौतम गंभीर, वीरेंद्र सहवाग, सचिन तेंडूलकर पहले भी थे लेकिन कभी कभार एक आध का बल्ला चलता था। अब तो सभी का चल रहा है। कभी इसका तो कभी उसका। पुराना नहीं तो नया खिलाडी ही कमाल कर जाता है। कभी कभार ही शॉट मारने वाले युवराज सिंह भी अब अनवरत अपना कमाल दिखा रहे हैं। दरअसल हमारी टीम दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है। टीम प्रबंधन की खामियों के कारण ही अब तक हारते रहे हैं, अपने चहेते खिलाडियों को टीम में स्थान देने की सोच के कारण मैच हारते गए। अगर शुरू से ही बेहतर खिलाडियों को आगे लाने की सोच रहती तो दक्षिण अफ्रिका के बजाय भारत नम्बर एक पर होता। धोनी ने टीम में प्रवेश के बाद से माहौल सुधारने का काम किया। बिना कप्तान महज विकेट कीपर के रूप में धोनी ने पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए साफ कर दिया कि तनाव में खेलना उसकी नीयती में नहीं है। असर भी साफ दिखाई दिया कि विपरीत परिस्थिति में से भी भारत मैच जीता। मुझे याद है ऐसा भी वक्त था जब भारत अच्छा स्कोर करने के बाद भी पाकिस्तान से दबाव में आ जाता। अंतिम चार पांच ओवर में पाकिस्तानी ऐसे हावी होते कि हम मैच हार जाते। धोनी ने ही पाकिस्तान के खिलाफ हौव्वा खत्म किया। आज पाकिस्तान की टीम पर दबाव रहता है, अच्छा स्कोर करके भी पाकिस्तान अंतिम ओवर में मैच भारत की झौली में डाल जाता है। इसका श्रेय भी धोनी को है कि अब अंतिम ओवर का भय खत्म हो गया। पिछले दिनों जब आस्टेलिया की टीम भारत आई तो भारतीय खिलाडियों का व्यवहार हमारे ही देश के सुसंस्कृत लोगों को रास नहीं आया होगा लेकिन 'टिट फॉर टेट' में विश्वास करने वालों को अच्छा लगा। कप्तान धोनी का ही हौसला है कि उसके खिलाडी आस्टेलियाई खिलाडियों के सामने गुर्राने से अब गुरेज नहीं करते। उल्टे अब वो अपनी ही अदाकारी के हथियार से नुकसान उठा रहे हैं। निश्चित रूप से भारतीय टीम को आस्टेलियाई अंदाज में मैदान में नहीं खेलना चाहिए लेकिन उसकी चाल सीधी करने के लिए ठीक रहा। नए खिलाडियों को अवसर देने में भी धोनी ने ही सर्वाधिक कमाल किया। श्रीलंका से तीन मैचों की श्रंखला जीतने के बाद लगातार नौ वन डे जीतने का रिकार्ड बनाने की धुन सवार करने के बजाय धोनी ने नए खिलाडियों को अवसर दिया। कोई भी उम्मीद से निकम्मा नहीं निकला। हर किसी ने अपना श्रेष्ठतम किया और मैच जीत गए। मुरलीधरन ने भले ही विश्वस्तरीय रिकार्ड बना दिया लेकिन भारतीय टीम ने श्रीलंका को जश्न मनाने की छूट नहीं दी। यह धोनी का ही कमाल है कि अब भारतीय क्रिकेट प्रेमी दक्षिण अफ्रिका के खिलाफ मैच श्रंखला देखने को बेताब है। एक बार भी लग रहा है कि विश्व कप का कोई दावेदार है तो वो भारत है। दरअसल धोनी खिलाडी नहीं है, विचारधारा है, जीतने की जिद है, कुछ कर गुजरने की ललक है, बस आगे बढने की सोच है, स्वयं को श्रेष्ठ समझने की समझ है। निश्चित रूप से हम स्वयं को धोनी मानकर सरलता से अपने लक्ष्य की ओर आगे बढे तो सफल हो सकते है। cartoon by www.daijworld.com