बात से मन हल्‍का होता है

Wednesday, November 4, 2015

दो घडियाली आंसू गुरुशरण के लिए...

अनुराग हर्ष

इस देश में अखलाक की मौत से सहिष्णुता खतरे में पड़ सकती है, दलित परिवार पर हमले से समूचे राष्ट्र को शर्मसार होना पड़ सकता है, इन दुखद घटनाओं पर स्तरहीन टिप्पणी करने वाले नेताओं के बयान मुद्दा बन सकते हैं लेकिन गुरुशरण छाबड़ा की मौत शायद चर्चा का विषय तक नहीं है। अधिकांश पाठक तो यह सोच रहे होंगे कि यह गुरुशरण छाबड़ा है कौन! जिसकी मौत पर इतनी कलम घसी जा रही है। मैं गुरुशरण छाबड़ा के राजनीतिक इतिहास और उनके जीवन के किसी भी पहलू पर चर्चा करने के बजाय उनकी मौत से पहले उठाए मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। ७० वर्ष के गुरुशरण सूरतगढ़ के पूर्व विधायक थे और इन दिनों प्रदेश में शराबबंदी की मांग को लेकर संघर्षरत थे। यह संघर्ष अखबार के दफ्तरो में विज्ञप्ति देने तक और इलेक्ट्रानिक मीडिया कार्यालयों में बाइट देने तक सीमित नहीं था। वो चौथी बार इसी मांग को लेकर अनशन पर बैठे थे। बीमार हुए और मंगलवार सुबह साढ़े चार बजे मरण के साथ ही अनशन का दुखद अंत हो गया। हकीकत यह है कि गुरुशरण के निधन पर घडियाली आंसू बहाने वालों ने उनके अनशन को गंभीरता से नहीं लिया। न तो वर्तमान भाजपा सरकार ने और न पूर्व की कांग्रेस सरकार ने। गंभीरता से लेते भी कैसे? छाबड़ा उस शराबबंदी की मांग कर रहे थे, जो प्रदेश की राजस्व का सबसे बड़ा रास्ता है। बंद बोतल की शराब भले ही किसी के घर को उजाड़ रही है लेकिन सरकार का मानना है कि प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुधारने में शराब का बड़ा योगदान है। बंद करना तो दूर दोनों सरकारें शराब से मिलने वाले राजस्व के लक्ष्य को निरंतर बढ़ाती रही है। आज प्रदेश में शराब का ठेका लेने के लिए प्रतिस्पद्र्धा है, बोली लगती है, लॉटरी खुलती है। मानो किसी का घर उजाडऩे के लिए होड मची है। कहते हैं 'रुखी सुखी खा लेंगे लेकिन इमान से समझौता नहीं करेंगे।Ó सरकार ऐसा नहीं मानती। उसे तो बस राजस्व चाहिए। वो भले ही शराब से आए या फिर भांग, डोडा या पोस्त से। अगर ऐसे राजस्व से मेरे शहर में ओवरब्रिज बना है, सड़क बनी है तो मुझे टूटी सड़क के धक्के और बिना ओवरब्रिज की बिगड़ी यातायात व्यवस्था पसन्द है। गुरुशरण के निधन के बाद अब राजनीति शुरू हो गई है। जिन नेताओं ने अब तक उनकी कोई सुध नहीं ली, मांग को गंभीरता से नहीं लिया, उनका मखौल उड़ाया, जिन चाटुकारों ने उनका नाम तक नहीं सुना, वो सभी दुख जता रहे हैं। उन्हें दुख होगा कि गुरुशरण के आसपास रहते तो चुनाव में टिकट मिल जाता, और नहीं तो कुछ वोट मिल जाते। ऐसे चाटुकारों को शायद पता नहीं होगा कि संवेदना के साथ राजनीति करने वाले को वोट नहीं मिलते। खुद गुरुशरण दोबारा मैदान में उतरे तो महज हजार वोट के आसपास सिमट गए। यह वो ही गुरुशरण थे, जिन्होंने निर्दलीय चुनाव लडऩे की घोषणा की तो हजारों लोगों ने कंधों पर बिठा लिया था, वोट हुए, मतगणना हुई तो पता चला कि हजार वोट आए। दरअसल, मुद्दों की लड़ाई पर देश में वोट मिलने बंद हो चुके हैं, नेताओं की नहीं शायद आम आदमी की संवेदना भी खुद तक सिमट कर रह गई है, वो अपने लाभ के लिए वोट देता है, राष्ट्र समाज और इंसानियत नजर नहीं आती। दो चार दिन में गुरुशरण की मूर्ति लगाने, स्मारक बनाने की मांग होने लगेगी, लेकिन कोई यह कहने वाला नहीं मिलेगा कि अगला 'गुरुशरणÓ मैं हूं। आखिर शराब बंदी के खिलाफ देश और प्रदेश में मांग क्यों नहीं उठती। बहुत कम लोगों को पता होगा कि एड्स, कैंसर, डेंगू, स्वाइन फ्लू, हृदयघात और कई गंभीर बीमारियों से होने वाली मौतों से भी बड़ा आंकड़ा शराब के कारण मरने वालों का है। किडनी फेल होने सहित कई तरह की बीमारियों का बड़ा कारण शराब और सिर्फ शराब है। सत्ता में बैठे नेता तो नहीं समझ सकते कि गुरुशरण की मांग का वजन कितना था, विपक्ष में बैठे नेता सिर्फ बयान दे सकते हैं। सोचना और समझना तो आम इंसान को है। शराब बंदी होनी चाहिए, होनी चाहिए, होनी चाहिए।
श्री गुरुशरण छाबड़ा को 'दैनिक नेशनल राजस्थान का नमन्।

Monday, September 14, 2015

किसके भरोसे है बिहार का भविष्य?

बिहार में चुनाव की तारीखे घोषित हो गई है। इससे पहले ही बिहार की राजनीति अपने रंग दिखाने शुरू कर चुकी थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकसभा चुनाव के बाद से ही बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो गई थी। नीतीश सरकार की जबर्दस्त हार और उसके बाद नीतीश कुमार का इस्तीफा साफ कर रहा था कि अब चुनावी चौसर पर बिहार के लिए शह और मात का खेल होगा। पहली चाल नीतीश ने चली थी। मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर नीतीश ने जनता में संदेश देना चाहा था कि वो हार का जिम्मा ले रहे हैं और शेष समय में अपनी पार्टी को मजबूत करने का काम करेंगे। नीतीश की यह चाल तब किसी नौसिखिए नेता जैसी नजर आई, जब वो जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए बेताब हो गए। दरअसल, मांझी जैसा प्यादा जैसे ही वजीर के घर में पहुंचकर शक्तिशाली हुआ, उसने वैसे ही रंग दिखाने शुरू कर दिए। मुख्यमंत्री के रूप में मांझी ने जिस शख्स को सबसे पहले कमजोर करने की कोशिश की वो नीतीश कुमार थे। यहां तक कि मुख्यमंत्री रहते हुए ही वो नरेंद्र मोदी से मिलकर समर्थन का विश्वास जता चुके थे। मुख्यमंत्री बने रहने के लिए मांझी के प्रयास पार्टी में ही मजबूत होते तो फिर भी कोई परेशानी नहीं थी लेकिन भाजपा की गोद में जाकर बैठना पार्टी के किसी भी सदस्य को रास नहीं आया। यही कारण है कि मांझी को मुख्यमंत्री पद से उन्हीं के नेताओ ने किनारे कर दिया। अब मांझी घोषित रूप से भाजपा का पल्लू पकड़कर दौड़ते नजर आए। बारी भाजपा की थी, जिसने सामने वाली पार्टी के प्यादे को अपने लिए चलाना शुरू कर दिया। महादलित के नाम पर भाजपा ने मांझी और उसके समर्थक मतों को एक झंडे के नीचे लाने का पहले पूरा प्रयास किया। जब लगा कि मांझी यह करने में सफल नहीं हुए है तो सीटों के बंटवारे में उन्हें किनारे करने का निर्णय कर लिया। अब हालात यह है कि भाजपा के लिए ही मांझी एक समस्या बनकर रह गए हैं। हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह फिर भी उन्हें पार्टी के हित में ही ऐसा फिट करने की तैयारी में है, जहां वो न तो कुछ बोल सके और न भाजपा को नुकसान पहुंचा सके।
बिहार का भविष्य तय करेंगे चुनाव
बिहार के यह चुनाव सिर्फ इस राज्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि देश की राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम साबित होने वाला है। पहला यह कि इस चुनाव से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर सीधा सीधा असर पड़ेगा। अगर भाजपा यहां सरकार नहीं बना पाई तो मोदी के लिए दिल्ली के बाद यह दूसरा झटका साबित होगा। तय हो जाएगा कि मोदी का ग्राफ नीचे की ओर जा रहा है। वर्ष २०१९ में होने वाले लोकसभा चुनाव में मोदी फिर से प्रधानमंत्री के सशक्त दावेदार होंगे या नहीं यह इस चुनाव में काफी हद तक तय हो जाएगा। इसके बाद पश्चिम बंगाल के चुनाव मोदी के लिए बहुत ही मुश्किल है। उसमें अगर हार होती भी है तो सुधरे हुए परिणाम से ही उनकी छवि बनी रहेगी। इसके विपरीत अगर मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत गठबंधन की सरकार बिहार में बनती है तो यह न सिर्फ मोदी मजबूत होंगे बल्कि विपक्ष चारों खाने चित हो जाएगा। विपक्ष में जो सबसे बड़ी पार्टी है, वो बिहार में नंबर तीन पर है। जी हां, कांग्रेस। कांग्रेस के लिए यह चुनाव बिहार में नहीं बल्कि केंद्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण है। बिहार में नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनवाने के अलावा कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है। अगर नीतीश की सरकार बनती है तो वर्ष २०१९ में कांग्रेस लोकसभा में कुछ मजबूत हो सकती है।  इसके साथ ही कई बड़े नेताओं के लिए भी यह चुनाव जीने मरने का सवाल है। नीतीश के बाद सबसे अधिक प्रभावित होने वाले हैं लालू प्रसाद यादव। इसके अलावा राम विलास पासवान। जो केंद्र में मंत्री है, सरकार नहीं बनी तो उनका महत्व भी घट जाएगा। भाजपा का बिहार में चेहरा सुशील मोदी भी इस चुनाव के बाद नए स्वरूप में नजर आएंगे। तारीक अनवर, शत्रुघन सिन्हा और शाह नवाज हुसैन के अलावा असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति प्रभावित होगी।

Tuesday, July 28, 2015

एक और कलाम कब आएगा

जब स्कूल में पढ़ते थे तो गुरुजन कहते थे कि आप में ही कोई गांधी होगा, कोई नेहरु होगा, कोई इंदिरा और कोई सरोजनी नायडू होगी। तब तक देश में इतने ही महान लोग थे। आज जब पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम हमारे बीच नहीं है तब लगता है कि शायद हमें अब अपने बच्चों को कहना होगा कि कल के कलाम शायद वो ही होंगे। और यह देश के भविष्य की जरूरत भी है कि कोई न कोई कलाम फिर पैदा हो। एक बार फिर मिसाइल मैन देश में आए ताकि हम न सिर्फ सामरिक दृष्टि से बल्कि बौद्धिक दृष्टि से भी श्रेष्ठतम होने का दावा कर सकें। वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने शोक संदेश में कहा कि कलाम आम लोगों के राष्ट्रपति थे। उनका यह कहना भर ही साबित कर गया कि मुखर्जी स्वयं मानते हैं कि कलाम उनसे अधिक लोकप्रिय थे। दरअसल, कलाम राजनीतिज्ञ थे ही नहीं, इसलिए न तो कांग्रेसी और न भाजपाई किसी के बीच उनका विरोध नहीं है। कलाम ने देश को राजनीतिक रूप से विभक्त करने का कोई पाप किया ही नहीं। उन्होंने देश में राजनीतिक विभक्तता को खत्म करने की कोशिश की। कलाम ही है, जिन्होंने राष्ट्र को यह गौरव दिलाने का प्रयास किया कि हम दुनिया की सामरिक शक्तियों में एक है। पाकरण में जो कुछ हुआ, उसकी कानों कान खबर किसी को नहीं हुई, लेकिन जिस दिन भारत ने कलाम के नेतृत्व में पोकरण में परमाण परीक्षण किया, उसी दिन दुनिया हमारा लोहा मान गई। हकीकत है कि मिसाइल मैन कलाम के दम पर ही भारत को यह गौरव हासिल हो सका। मुझे कलाम से साक्षात् होने का अवसर मिला तो उससे भी बड़ा गौरव का सवाल था कि मुझे उनसे कुछ सवाल करने का मौका भी मिला। मैंने कलाम से सवाल किया कि 'भारत एक विकासशील देश है, ऐसे में हमें करोड़ों अरबों रुपए क्या चांद को तक पहुंचने के लिए खर्च करने चाहिए।Ó इस पर कलाम ने मुझे कहा कि आप यह मत सोचिए कि यह धन बेकार जा रहा है, हम चांद पर पहुंचने के लिए इतनी राशि खर्च नहीं कर रहे हैं, बल्कि चांद पर पहुंचकर कई तरह की सेटेलाइट, कई तरह की नई तकनीक इजाद करने की सफलता की ओर बढ़ते हैं। यह पैसा बर्बाद नहीं हो रहा, काम आ रहा है। सही कहा था कलाम साहब ने कि देश को बड़े लक्ष्य बनाने होंगे, तभी हम छोटे काम आसानी से कर सकेंगे। उन्होंने परमाणु परीक्षण कर इतना बड़ा काम कर दिया कि अब कई बड़ी शक्तियां तो हमारी ओर छोटी नजर से देख ही नहीं सकती।  पाकिस्तान को तो मानो उसी दिन से यह डर सताने लगा है कि भारत दुनिया की बड़ी शक्तियों में एक है। सच में देश को एक और कलाम की जरूरत है, देश को एक और मिसाइल मैन की जरूरत है। निश्चित ही देश को यह कलाम जरूर मिलेगा।

Friday, July 24, 2015

राजनीति की भेंट चढ़ा मानसून सत्र

संसद में मानसून सत्र शुरू हो गया है। उम्मीद की जानी चाहिए थी कि देश की आम अवाम के लिए इस सत्र में कुछ चर्चा होगी। अरबों रुपए खर्च करके देश की जनता ने जिन सांसदों को संसद में भेजा है, वो उसी गरीब और आम आदमी के बारे में कुछ सोचेगी। इसके विपरीत देश की संसद में सिर्फ और सिर्फ राजनीति हो रही है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा हर बार कोई न कोई बहाना ढूंढकर कांग्रेस को बदनाम करने की कोशिश करती, संसद को बाधित करती ताकि कोई अच्छा काम नहीं हो सके, कोई बुरे काम पर रोक नहीं लग सके। आज सिक्के का दूसरा पहलू सामने आ गया है। जब सत्ता में भाजपा है और विपक्ष में कांग्रेस। हालात अब भी वैसे ही है, जैसे पहले थे। आज कांग्रेस नहीं चाहती कि किसी तरह का कोई काम संसद में हो। हर हाल में कांग्रेस यह चाहती है कि संसद ठप रहे, कोई भी चर्चा नहीं हो, भूमि विधेयक बिल पारित नहीं हो सके, हंगामा इतना बरपे कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों के अध्यक्ष के पास बहस स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो। कांग्रेस अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में अब तक सफल रही है, सफलता का एक पैमाना यह भी है कि सत्ता पक्ष स्वयं कांग्रेस के खिलाफ संसद के बाहर धरने पर बैठने को मजबूर हो गया है।
क्या इस देश ने इसी हालात के लिए सांसदों को चुनकर संसद में भेजा है कि वो वहां पर किसी मुद्दे पर चर्चा करने के बजाय सिर्फ हो हल्ला करें। इसमें कोई शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी इस पूरे मामले में मौन रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि मन मोहन सिंह की चुप्पी को पूरे चुनाव अभियान में हथियार के रूप में उपयोग करने वाले स्वयं भी मौनेंद्र कुमार हो गए हैं। आखिर क्या कारण है कि वो मीडिया के छह सवालों पर छह बार गर्दन घुमाते हैं और फिर आगे निकल जाते हैं। आखिर क्या कारण है कि दुनियाभर में स्वयं को शक्तिशाली और दबंग प्रधानमंत्री साबित करने की कोशिश में जुटा हमारा नेता आज चुप होकर बैठ गया है। देश की जनता ने नरेंद्र मोदी में एक शेर देखा था, जो हर वक्त दहाड़ सकता है। 'न खाऊंगा, न खाने दूंगाÓ जैसा बयान उनकी दहाड़ ही थी, लेकिन आज वो शेर के बजाय मौन हो गए हैं। मोदी को सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के मुद्दे पर अपनी बात कहनी चाहिए। उन्हें यह विश्वास होना चाहिए कि देश की आधी से अधिक जनता उनके बयान को ही सच मान लेगी। अगर वो कहेंगे कि तीनों सही थे तो उनके अंधभक्त मान लेंगे कि वो सही है। लेकिन अगर चुप रहेंगे तो उनके अंध भक्तों को भी जवाब देना मुश्किल हो रहा है। निश्चित रूप से मोदी और उनकी टीम इस मामले में बेकफुट पर है। यह भी सच है कि कांग्रेस इस पूरे मामले में दोषी है। कांग्रेस को सुषमा,वसुंधरा और शिवराज के नाम पर भाजपा को घेरने के लिए मानसून सत्र का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए था। इसके लिए वो सड़क पर आंदोलन कर सकती है, अदालत में जा सकती है। पचास तरीके हैं। देश के लिए सबसे कीमती मानसून सत्र को राजनीति की भेंट चढ़ाकर कांग्रेस ने आखिर किस राजधर्म का पालन किया है। भाजपा और कांग्रेस दोनों को राजनीति के बजाय राजधर्म पर ध्यान देना चाहिए।

Sunday, June 7, 2015

क्या अकेली मैगी ही दो मिनट में निपटनी थी

पिछले बीस वर्ष में मैंने पहली बार किसी सरकार को खाद्य सामग्री पर इस तरह कार्रवाई करते देखा है। खाद्य सामग्री तो दूर दुखदायी दवाओं पर भी इतनी सख्ती से कार्रवाई नहीं होती, जितनी मैगी पर हुई है। आश्चर्य इस बात का है कि मैगी बनाने वाली नैस्ले ने 'दो मिनटÓ भी अपनी शुद्धता के लिए संघर्ष नहीं किया। जैसे ही केंद्र सरकार ने इसे देशभर के लिए प्रतिबंधित किया, वैसे ही नेस्ले के अधिकारियों ने एक प्रेस कांफ्रेस करके बाय बाय  बोल दिया। कुछ तो गड़बड़ थी, तभी नेस्ले ने इतनी जल्दी हार स्वीकार कर ली। खैर इस सख्त कार्रवाई के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को साधुवाद। नैस्ले की मैगी देश के बच्चों के लिए स्वास्थ्यकारक थी या फिर हानिकारक, इससे अब कोई सरोकार नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी कंपनी ने भारत में जो एकाधिकार कर रखा था, उस पर सख्ती से रोक लग गई। जो नूडल्स नेस्ले बना रही है, वो मैगी है लेकिन जो हमारी मां बना रही है वो सेवईयां है। सेवईयां का नाम मैगी करके बाजार में प्रोफेशनल तरीके से पेश करने का गुण नेस्ले के पास था। हमारी मां कटोरी के छेद से जो सेवईयां बनाती है, वैसा स्वाद मैगी में आ ही नहीं सकता। अब महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि मैगी की तरह ही देश में और भी बहुत कुछ बिक रहा है, जिस पर सवालियां निशान है। उसकी जांच क्यों नहीं हो रही है। खासकर शीतल पेय की जांच होनी चाहिए, जिसने देश में करोड़ों अरबों रुपए का व्यापार फैला रखा है और हमारी भारतीय कंपनियों को पछाड़ दिया है। विज्ञापन के दम पर बिक रही कोका कोला, पेप्सी और अन्य शीतल पेय में मिलाई जा रही सामग्री की जांच होनी चाहिए। क्या यह शीतल पेय पीने से देशवासियों के स्वास्थ्य को सुधारा जा रहा है, क्या इससे देशवासियों के स्वास्थ्य को कोई नुकसान नहीं हो रहा है। स्वदेशी आंदोलन चला रहे देशवासी बार बार इन शीतल पेय पर रोक लगाने की मांग कर चुके हैं लेकिन उनकी आवाज दब जाती है। इसके अलावा भी बच्चों के खाने के बहुत सारे उत्पाद बाजार में है। जिसमें कई देशी है और कई विदेशी। इतना ही नहीं कई तरह की टॉफियां, चॉकलेट और आइसक्रीम भी बाजार में है। इनकी भी एक एक करके जांच होनी चाहिए। विदेशी के साथ देशी उत्पादों की भी जांच होनी चाहिए। हमारे बच्चे चिप्स खाना भूल गए लेकिन लेयज उन्हें हर हाल में चाहिए। आलू चिप्स कभी घर पर भी बना करते थे, सस्ते भी और स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुंचाने वाले भी। इसके बाद भी बाजार में बीस से चालीस रुपए में मुट्ठीभर चिप्स देने वाली कंपनी की जांच होनी चाहिए। न सिर्फ गुणवत्ता की बल्कि उसकी कीमत का भी आकलन होना चाहिए। कंपनियों को पता है कि बच्चों के जिद के आगे माता-पिता मजबूर हैं, और उन्हें पांच रुपए की चीज चालीस रुपए में देने में  कोई दिक्कत नहीं है। इन कंपनियों का प्रचार इतना ज्यादा है कि शुद्धता के साथ सामान बेचने की इच्छा रखने वालों को बाजार में टिकने ही नहीं दिया जाता। सरकार को चाहिए कि वो हर खाद्य सामग्री की जांच करे और गलत मिलने पर उस पर रोक लगाए।