बात से मन हल्‍का होता है

Friday, May 18, 2012

नहीं मिल रहा देश का पहला नागरिक

इन दिनों देश में प्रथम नागरिक की तलाश हो रही है। कुछ ही तलाश अमेरिका में भी चल रही है। वहां राष्‍टपति चुनाव को लेकर जितनी सरगर्मी है, उसका एक फीसदी हिस्‍सा भी हमारे देश में देखने को नहीं मिल रहा। कारण साफ है कि इसमें छुटभैया से लेकर वरिष्‍ठतम नेता का खास जुड़ाव नहीं है। नेताओं की फेहरिस्‍त में शामिल 99 फीसदी नेताओं को इससे कोई सरोकार नहीं है कि अगला राष्‍टपति कौन बनने वाला है। यह तय है कि उनका नम्‍बर नहीं आने वाला। बात अगर आजादी के बाद की करें तो राष्‍टपति पद बहुत ही गरीमामय था। राष्‍टपति बनने की इच्‍छा हर बडे़ नेता की होती थी। आज ऐसा लगता है कि प्रमुख नेता इस पद से ही दूर भाग रहे हैं। कारण साफ है कि राष्‍टपति बनना राजनीति से रिटायरमेंट की तरह है। देशभर में नेता इसीलिए राष्‍टपति नहीं बनना चाहते। इन दोनों संवैधानिक पदों के प्रति खास रुचि नहीं होना हमारे संविधान की भावनाओं को चुनौती के समान है। अजीब सी उलझन है। कई बार प्रणब दा का नाम आता है तो मन कांपने लगता है। लगता है देश को चलाने वालों में प्रणब दा जैसे ही लोग बचे हैं। उन्‍हें भी राष्‍टपति बना दिया तो सरकार का क्‍या होगा। कैसे चलेगी सरकार। जैसे यह कल्‍पना करना कठिन था कि इंदिरा गांधी के बिना सरकार कैसे चलेगी, सुनील गावस्‍कर के बिना टीम इंडिया कैसे खेलेगी। आज भी प्रणब दा और चिदंबरम जैसे नेताओं के बाद सरकार खाली खाली लगती है। फिर ऐसे व्‍यक्ति की राष्‍टपति के रूप में खोज शुरू हो रही है जो किसी काम का नहीं हो लेकिन हस्‍ती बड़ी हो। पार्टियां देश के लिए नहीं बल्कि अपनी राजनीति के आधार पर नेताओं के नाम ले रही है। चिंता तो इस बात की है कि कलाम के नाम पर भी आपत्ति होने लगी है। आपत्तिजनक तो यह भी है कि कलाम का नाम दोबारा आया ही क्‍यों। क्‍या हम अपने ही नेताओं में कुछ ऐसे लोगों का चयन करने की स्थिति में ही नहीं है जो राष्‍टपति बन सके। पिछले कुछ वर्षो के राजनीतिज्ञों में ऐसा कोई नहीं है। कुछ ऐसी ही स्थिति राज्‍यपाल के चयन में भी होती है। राजस्‍थान को तो अर्से बाद एक मनोनीत राज्‍यपाल मिला।