बात से मन हल्‍का होता है

Sunday, April 18, 2010

खो गई नेताओं की नैतिकता




एक जमाना था जब देश में रेल दुर्घटना होने के साथ ही रेल मंत्री त्‍यागपत्र दे देते थे। कभी कभार प्रधानमंत्री त्‍यागपत्र स्‍वीकार करते और कभी इनकार कर देते। त्‍यागपत्र में एक मात्र लाइन लिखी होती थी कि मैं दुर्घटना की नैतिक जिम्‍मेदारी लेते हुए त्‍यागपत्र दे रहा हूं। अर्से से नैतिकता के नाम पर त्‍यागपत्र देने का सिलसिला ही खत्‍म हो गया। हां, प्रधानमंत्री को हटाना होता है तो संबंधित मंत्री की इज्‍जत बनाए रखने के लिए नैतिकता का बहाना जरूर किया जाता है। देश की संसद पर हमला होने के बाद देश के किसी नेता ने त्‍यागपत्र नहीं दिया। आतंकियों को हवाई जहाज में बिठाकर छोडकर आने वाले नेता ने त्‍यागपत्र नहीं दिया तो आईपीएल जैसे विवाद पर शशि थरूर से त्‍यागपत्र मांगना बेमानी है। बेमानी इसलिए नहीं है कि मामला छोटा है, बेमानी इसलिए हैं कि नैतिकता वाले नेता ही दुनिया से लुप्‍त हो गए हैं। थरूर से पहले तो उस मंत्री को नैतिकता के आधार पर त्‍यागपत्र देना चाहिए जिन्‍होंने पिछले दिनों नक्‍सलवाद के चलते देश के जवानों की मौत की जिम्‍मेदारी ली थी। अगर जिम्‍मेदारी ही लेते हैं तो त्‍याग पत्र देते क्‍यों नहीं। क्‍या सरकार के पास उनके अलावा कोई मंत्री नहीं है, जो गलती मानने वाले को ही मंत्री बनाए रखे है। क्‍या कारण है कि अवसरवाद ने नैतिकता को पूरी तरह खत्‍म कर दिया। यह अवसर चला गया तो दोबारा मंत्री बन सकेंगे या नहीं। यही चिंता सता रही है, इसी कारण सीट छोडने के लिए तैयार नहीं। आईपीएल जैसे भ्रष्‍ट खेल पर हमारे नेता पार्टीवाद छोडकर एक मंच पर आ सकते हैं, लेकिन देश के लिए नहीं। शरद पंवार और नरेंद्र मोदी की नजदीकी इसका उदाहरण है। जब आप भाजपा को गाली निकालते हैं तो उसके नेता के साथ यह धंधा क्‍यों कर रहे हैं। अगर आप कांग्रेस विचारधारा को ही गाली दे रहे हैं तो कमोबेश उसी विचारधारा से जुडे नेता से क्‍यों नजदीकी रखते हैं। कारण साफ है कि मन के साथ साथ विचारों की नैतिकता भी खत्‍म हो गई है। इसलिए थरूर से इस्‍तीफे की उम्‍मीद कना ही बेकार है अगर दे देते हैं तो मान लेना चाहिए कि कांग्रेस अब थरूर के नाटक सहन नहीं कर पा रही थी। 

Saturday, April 17, 2010

शिक्षा का यह कैसा अधिकार

राजस्‍थान में शिक्षा का अधिकार तो लागू हो गया लेकिन हकीकत इस वीडियो में है
http://www.youtube.com/watch?v=1uu3kYapeiI


लायक लगे तो टिप्‍पणी दें

Friday, April 16, 2010

सानिया सानिया सानिया सानिया

पिछले दिनों मीडिया के पास जो सबसे बडा मुद़दा था वो सानिया मिर्जा और पाकिस्‍तानी क्रिकेटर सोएब मलिक के निकाह का था। हमारी मीडिया को चिंता थी कि सानिया की शादी आखिर कैसे हो सकती है, आयशा का ऐसा टिविस्‍ट डाला कि सास बहु सीरियल की टीआरपी भी कम हो गई। मेरी घरवाली सानिया को नहीं जानती लेकिन उसने भी साफ कह दिया कि यह तो गलत है, आयशा है तो फिर सानिया क्‍यों ? दो दिन बाद ही उसने कहा कि सानिया का पति कितना अच्‍छा है, उसने वो ही सूट पहना जो हैदराबादी लोग पहनते हैं, मैं सुनता रहा। दो दिन गुजरे और उसने मुझे फिर टोका कि देखो सानिया के रिसेप्‍श्‍ान में 29 तरह के पकवान थे। इस बीच दांतेवाडा में क्‍या हुआ, मनमोहन सिंह का ओबामा से मेल मिलाप कैसा रहा, उस पर ध्‍यान नहीं गया। एक और खबर पर उसका ध्‍यान गया तो वो थी इंडियन असेम्‍बली के चिकने चुपडे, सुपर स्‍टार, शशि थरूर की खबर पर। अब वो बार बार पूछती है कि इन दिनों थरूर किस मॉडल के साथ है, ये फिल्‍म में मोदी कहां से आ गया। सच कहूं तो इन दिनों मेरे घर में सास बहू के सीरियल कम और न्‍यूज चैनल अधिक देखे जा रहे हैं। क्‍यों न देखें? इसमें सारा मसाला आ रहा है और वो भी सच्‍ची दुनिया स्‍टाइल मे। अब तक चैनल वालों के निशाने पर अमिताभ बच्‍चन है, शाहरुख खान है, महेश भूपति है। इन लोगों के कारण चैनल वाले बडे परेशान है। आखिर यह लोग सानिया के रिसेप्‍शन में क्‍यों नहीं आए। आते तो खबर तीन चार बार ज्‍यादा रिपीट हो जाती। नहीं आने से करोडों का नुकसान हो गया। इसे कहते हैं बेगानी शादी में अब्‍दुला दिवाना।
किसी ने यह खबर नहीं दी कि सानिया पाकिस्‍तानी खिलाडी से शादी करने से भारत पाक संबंधों पर कोई असर पडेगा क्‍या ? पाकिस्‍तान ने कहा है कि सानिया अब पाकिस्‍तान की इज्‍जत है तो क्‍या शोएब मलिक भारतीय गेंदबाज की बॉल पर छक्‍का मारेगा तो हम तालियां बजाएंगे ? क्‍या शोएब मलिक को हम उतनी ही इज्‍जत देंगे। क्‍या दोनों देशों के राजनेता इस मुबारक मौके पर एक दुसरे के साथ बैठकर समस्‍या निपटा सकेंगे। कुछ चैनलों ने इस समाचार को पूरी तरह फिल्‍मी स्‍टाइल में ही दिखाया। आखिर नक्‍सलवाद पर मारे गए जवानों के प्रति हम कब जिम्‍मेदार होंगे। उनकी कवरेज क्‍यों नहीं हुई। अगर यही दिखाना था तो न्‍यूज चैनल ही क्‍यों। एंटरटेनमेंट चैनल पर ही यह काम कर लेते।

Sunday, April 11, 2010

प्रधानमंत्रीजी को एक पत्र


प्रधानमंत्री जी 
सादर वंदे
अमरीका यात्रा पर देरी से ही लेकिन हमारी शुभकामनाएं स्‍वीकार करें। वैसे तो आपको हम कुछ कहें यह गुस्‍ताखी ही होगी लेकिन आजाद भारत में जब लोग गलत काम के लिए गुस्‍ताखी दर गुस्‍ताखी करते जा रहे हैं तो मैं भी इसी तरफ एक कदम बढाकर स्‍वयं को गलत नहीं मानता। जब से होश संभाला है तब से दो देशों का नाम ही शक्तिशाली राष्‍ट़ के रूप में सुने और पढे। एक मिखाइल गोर्बाचोव के उस देश के जिसका आज कहीं अतापता नहीं है। दूसरा अमरीका का। जापान और चीन तो संघर्षशील राष्‍ट़ के रूप में ही हमेशा पेश किए गए। वैसे भी जापान और चीन को दूसरे देशों के आपसी मामलों में टांग अडाने का शौक नहीं है। अमरीका को ही यह शौक है, वो भी शायद इसलिए कि हमारे जैसे कई देश बार बार उसी की ओर ताकते हैं। हम ताकते हैं क्‍योंकि पाकिस्‍तान उसकी शरण में पडा है, हम उसकी निगाह ठण्‍डी चाहते हैं क्‍योंकि हमारा पडौसी दुश्‍मन देश उसकी चम्‍चागिरी करके हर बार उसकी ठण्‍डी निगाह से कोई न कोई फायदा उठा लेता है। वैसे भी मुझे देश की विदेश नीति का इतना ज्ञान नहीं है, लेकिन आम भारतीय के रूप में मेरा सोचना है कि यह देश अमरीका का गुलाम न तो पहले था और न अब है। पाकिस्‍तान अगर उसकी गोद में जाकर ही बैठ जाए या फिर ओबामा सहित कोई भी अमरीकी राष्‍ट़पति अगर इस्‍लामाबाद में बैठकर ही राजनीति शुरू कर दें तो हमें नहीं घबराना चाहिए। इस दुनिया में भारतीय अपने बूते जीता है और अपने दम पर ही आगे बढा है। आज अमरीका सहित समुची दुनिया की अर्थ व्‍यवस्‍था में हमारी भूमिका के बारे में आपको बताना और सूरज के सामने दीपक जलाने जैसा होगा। जब हम स्‍वयं शक्ति हैं तो दूसरी शक्तियों के सामने झुक कैसे सकते हैं। लोग आपको कमजोर प्रधानमंत्री कहते हैं लेकिन मेरा मन कहता है कि अमरीका में होने वाले अंतरराष्‍ट़ीय सम्‍मेलन में आप कमजोर दिखाई नहीं देंगे। शायद आप यह कहने में सफल होंगे कि अमरीका हमारी पंचायती करना छोड दें( वैसे भारत में आपने कई बार ऐसा कहने का साहस दिखाया है)। अमरीका चाहता है कि हम परमाणु हथियार की होड से बाहर हो जाएं। अरे भई हम होड में ही कहां ? हम तो पहले ही होड जीत चुके हैं। अमरीका को चाहिए कि वो पाकिस्‍तान को समझाएं कि हमारी बराबरी करने का सपना छोड दें। फिर अमरीका यह सलाह देने वाला होता भी कौन है ? रूस के साथ अमरीका की परमाणु हथियार की होड ने ही तो समूची दुनिया को इस विनाश की ओर आगे बढाया है। तभी तो हमारे जैसे भोले भाले देशों को पता चला कि परमाणु हथियार बना लेते हैं ताकि आगे काम आएगा। अब हेलरी‍ मैडम का कहना है कि भारत और पाकिस्‍तान के बीच होड के कारण परमाणु हथियार का बाजार गर्म हो रहा है तो हम मान लेते हैं। अगर यह होड हमारी है तो हमारे पर ही छोड देनी चाहिए।
प्रधानमंत्रीजी आप ही तो कहते हैं कि हम विकसित भारत की ओर बढ रहे हैं जब हम विकसित देश हो रहे हैं तो अमरीका जैसे छोटे से देश को इतना भाव देना कहां तक जरूरी है। हेलरी जहां से जीत कर आती है उतने वोटों के सांसद को तो हमारी संसद में पीछे वाली सीट भी मुश्किल से मिलती है। उसकी बात पर ज्‍यादा ध्‍यान देना भी कहां जरूरी है।
मौका पडे तो आप इतना जरूर कहना कि अमरीका पहले हमारी पंचायती छोडे और अपने देश को संभाले। हमारे यहां हो रही आतंककारी घटनाओं के अपराधी को हमारे हवाले करने में सहयोग करें। कहते हैं चोर की दाडी में तिनका होता है, इसलिए अमरीका अपनी दाडी हमारे सामने खुजाने के लिए भी तैयार नहीं है। हेडली तो एक उदाहरण है, ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे कि अमरीका नहीं चाहता कि हम उससे आगे एक बडी शक्ति के रूप में सामने आएं।
जोश में कुछ ज्‍यादा कह दिया तो क्षमा।
आपका ही
प्रेम भारतीय

Sunday, March 28, 2010

अमिताभ बच्‍चन आतंककारी है क्‍या ?

महाराष्‍ट. के एक कार्यक्रम में अमिताभ बच्‍चन क्‍या पहुंच गए, कांग्रेसियों के ललाट पर सलवटे पडने लगी। अमिताभ बच्‍चन तो हस्‍ती है, इस देश की धरोहर है, अपने दम पर अपना वजूद बनाने वाला व्‍यक्तित्‍व है, संघर्ष से जूझने का एक उदाहरण है, देश के एक अरब लोग हिन्‍दी फिल्‍म नहीं देखते लेकिन दुनिया के अरबों लोग उसके दिदार को तरसते हैं। आज उसी अमिताभ बच्‍चन की उपस्थिति मात्र ने कांग्रेसियों के ललाट पर सलवट ला दी। पिछले दिनों आईपीएल के टिकट को लेकर एक नेताजी का जो विज्ञापन आता था कि टिकट नहीं मिला तो पार्टी हिला देंगे। कांग्रेस पार्टी की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। जिन लोगों ने अमिताभ बच्‍चन का विरोध किया, उनमें अधिकांश तो अमिताभ बच्‍चन के साथ एक फोटो खिंचवाने के लिए तरसते होंगे। सवाल यह है कि गुजरात के ब्रांड अम्‍बेसडर होने से क्‍या अमिताभ बच्‍चन भाजपाई हो गए? क्‍या अमिताभ बच्‍चन देशद्रोही हो गए ? क्‍या अमिताभ बच्‍चन इस छोटे से कार्यक्रम में भारतीय नागरिक होने की हैसियत से भी नहीं पहुंच सकते थे और बडा सवाल कि क्‍या देश के शासन को चलाने वाली कांग्रेस के पास अब इन्‍ही बातों पर ध्‍यान देने का वक्‍त रह गया है? क्‍या कांग्रेस उस अमिताभ बच्‍चन को भूल गई जिसने इलाहदाबाद में हेमंतीनंदन बहुगुणा जैसे कद़दावर नेता को हराकर कांग्रेस के तत्‍कालीन सर्वेसर्वा राजीव गांधी की नाक बचाई थी। आज उन्‍हीं के एक कार्यक्रम में आने से क्‍या सोनिया गांधी की नाक कट गई? दुख तो इस बात का है कि अमिताभ के बाद अभिषेक बच्‍चन का भी विरोध शुरू कर दिया गया। हमारी राजनीतिक व्‍यवस्‍था की इतनी असहाय हो गई है कि आम आदमी की चिंता करने के बजाय आलाकमान की व्‍यक्तिगत और नितांत पारीवारिक  द्वेषता को एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से जोड देते हैं जिस पर फिलहाल देश के एक अरब लोगों की अरबों समस्‍याओं से जुझने का जिम्‍मा है। प्रधानमंत्री पद का त्‍याग करने वाली सोनिया गांधी क्‍या इस छोटे से मुददे पर पार्टी को चुप रहने की हिदायत नहीं दे सकती। इस घटनाक्रम ने अमिताभ बच्‍चन को नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी को ही बदनाम किया है।

Friday, October 9, 2009

क्‍या देश में सेना की कमी है



देश के प्रमुख हिन्‍दी दैनिक 'पत्रिका' के सम्‍पादकीय पेज पर आमतौर पर फोटो प्रकाशित नहीं होता। कल का संपादकीय में चार कॉलम में एक फोटो छपा। नीचे लिखे केप्‍शन ने फोटो की अहमियत का अहसास करा दिया। मन को बहुत दुख हुआ कि आजाद भारत में एक पुलिस कर्मी को तरह मौत के घाट उतारा जा सकता है और जनता तमाशबीन होकर देख भी रही है। फ्रांसिस इंदूवार की हत्‍या के  बाद पुलिस होश संभालती उससे पहले गढ़चिरौली में इंदूवार जैसे 18 और पुलिसकर्मी शहीद हो गए। पाकिस्‍तान को तीन बार धूल चंटाने वाला भारत, दुनिया की नई शक्ति के रूप में उभर रहे इंडिया और अपने अभिमान के लिए सब कुछ न्‍यौछावर करने वाले हिन्‍दूस्‍तान की क्‍या यही दशा देखनी शेष रह गई है। आखिर क्‍या कारण है कि हम नक्‍सलवाद से निपट ही नहीं पा रहे हैं। मायोवादी क्‍या भारतीय सेना से अधिक मजबूत, शक्तिशाली और निर्णयक्षमता वाले हो गए कि हम कमजोर साबित हो रहे हैं। हमारी सरकारी व्‍यवस्‍था का आलम तो यह है कि इंदूवार अपनी जान हथैली पर लेकर नक्‍सलवाद से लड़ रहा था और उसका सरकारी कार्यालय पांच माह पहले तबादले का कागज नहीं पहुंचने के कारण वेतन के लिए परिजनों को चक्‍कर कटा रहा था। हमारी सारी शक्ति इसी काम में लग रही है कि कैसे किसी काम को टाल दिया जाए। इंदूवार के वेतन से लेकर मायोवादियों का खात्‍मा करने के निर्णय तक के बीच ऐसे ही हालात हमें कमजोर साबित कर रहे हैं। महाराष्‍ट़ के जिस क्षेत्र में माओवादियों ने कब्‍जा किया है, वहां क्‍या भारतीय सेना नहीं पहुंच सकती। जब श्रीलंका लिट़टे जैसे संगठन को नेस्‍तनाबूद कर सकती है तो क्‍या हम  इतने भी सक्षम नहीं है। दुख की बात है कि हमारे गृह मंत्री अब भी वार्ता की बात कर रहे हैं। क्‍या हमारी वार्ता इतनी मजबूती से होगी कि माओवादी हथियार डाल देंगे। हम बार बार मामले को टालने के लिए वार्ता और शांति की बात क्‍यों करते हैं ? जब देश के कानून में एक व्‍यक्ति की हत्‍या की सजा मौत है तो सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारने वालों के साथ वार्ता कैसी?

Wednesday, September 16, 2009

चीन को चांटा क्‍यों नहीं ?


आज राजस्‍थान पत्रिका के प्रथम पृष्‍ठ पर एक कार्टून छपा है। बहुत ही शानदार। बताया गया है कि एक तरफ प्रधानमंत्री जी ऑफिस से बाहर निकल रहे हैं और पास ही खड़े कार्टून आइकन कहते हैं ''अब कुछ करोगे भी या सिर्फ बोलते रहेंगे''। चीन की घुसपैठ के मामले में मुझे यह सटायर सही समय पर लगाया गया शॉट है। आखिर क्‍या कारण है कि हमारी सरकारें सिर्फ बोलने का काम करती है। बयान देने में हम सबसे आगे हैं और करने में सबसे पीछे। मुझे करगिल युद्ध का समय याद आता है। मेरे शहर बीकानेर से पाकिस्‍तान की सीमा काफी सटी हुई है। करगिल युद्ध के वक्‍त बीकानेर में सेना का डेरा था, हर तरफ हथियार, गोला बारूद देखकर लगा कि अब तक सीमा पर आरपार की लड़ाई होने वाली है। पाकिस्‍तान को एक बार फिर छठी या सातवीं का दूध याद आ जाएगा। हम लोग भी युद्ध की तैयारी में जुटे हुए थे। इस बीच एक साधारण से जवान से बातचीत करने पहुंच गए। उससे पूछा कि युद्ध में जा रहे हो, कहीं डर तो नहीं लग रहा। उसने तुरंत कहा, ''हां, डर लग रहा है।'' मैंने उसे धिक्‍कारते हुए कहा कि डर ही लग रहा है तो यहां क्‍यों बैठे हो। घर जाओ। उसने कहा ''यही तो डर लग रहा है कि लड़ने के लिए इतनी दूर आए हैं। कहीं प्रधानमंत्रीजी वापस लौटने के लिए नहीं कह दे। हालात ऐसे नहीं थे कि वापस लौटने जैसी स्थिति हो। पहाड़ों में चुनौती दे रहे पाकिस्‍तान को धोरों की धरती से मात देने की तैयारी कुछ दिन बाद ही बंद हो गई। युद्ध नहीं हुआ। सिर्फ मशक्‍कत हुई, बातें हुई और सैनिकों को इधर से उधर चक्‍कर काटने पड़े। न सिर्फ करगिल के वक्‍त बल्कि संसद पर हमले सहित अनेक मामलों में भी सेना हरकत में आती है लेकिन कोई हरकत करती नहीं है। उस जवान से बात करने के बाद लगा कि उसकी बाजू तो फड़क रही है लेकिन सरकार उस पर पाबंदी लगाए हुए हैं। अगर चीन हमारी जमीन पर कब्‍जा कर रहा है, खुद ही आगे बढ़ता जा रहा है तो हमें कार्रवाई करने के लिए क्‍या अमरीका से अनुमति लेनी होगी। हम क्‍यों अपने बचाव के लिए खुद कुछ नहीं करते। धीरे धीरे चीन आगे बढ़ता जाएगा और हम शांति शांति की रट लगाए रहेंगे। आज युद्ध आसान नहीं है, बहुत गंभीर मसला है लेकिन युद्ध न सही, उचित प्रतिउत्‍तर तो दे ही सकते हैं। कभी पाकिस्‍तान, कभी चीन, कभी नेपाल, कभी बांग्‍लादेश। सभी पड़ौसी देश मौका मिलने पर भारत से छेडखानी करने से नहीं डरते। क्‍या हम चीन में इतनी मजबूती से जवाब नहीं दे सकते कि छोटे प्‍यादे तो सुनकर ही किनारे हो जाए। हमारी सेना के हाथ बांधने के बजाय पाकिस्‍तान व चीन को जवाब देने की तैयारी होनी चाहिए। अतिक्रमण करने से पहले चीन ने किसी से पूछा नहीं था, विदेश नीति का भी ध्‍यान नहीं रखा था। फिर हम उनका ध्‍यान क्‍यों रख रहे हैं।
कहां घुसा है चीन
उत्‍तरी सिक्किम के कैरंग सहित अनेक क्षेत्रों में घुसपैठ । पाकिस्‍तान दो किलोमीटर लंबे फिंगर टिप क्षेत्र पर कब्‍जा करने की कोशिश में
क्‍या किया चीनी सेना ने
भारतीय जवानों पर गोलियां चलाई। दो जवान घायल।
क्‍या है नियम
नियमानुसार गोलीबारी करना अनुचित है। अगर भारत से कोई शिकायत है तो संबंधित माध्‍यम से ही यह
सूचना की जा सकती थी।