Sunday, February 22, 2009
इस देश में ही आना लाडो
मेरा आठ वर्ष का बेटा इस बात से अनभिज्ञ है कि लडका और लडकी में क्या भेद हैं ? उसने मुझे पिछले दिनों एक अजीब सवाल किया। सवाल सुनकर मैं दंग था कि उसे यह सवाल पूछने की क्या जरूरत आ गई? उसने पूछा कि दुनिया के किस देश में लडकी को पैदा होते ही मार दिया जाता है? निश्चित रूप से यह सवाल उसकी उम्र और मानसिक स्तर से हटकर था। मैंने सवाल को टालते हुए उससे किनारा किया तो उसने स्वतस्फूर्त जो जवाब दिया वो मुझे और भी चकित करने वाला था। उसने कहा कि डैडी भारत में बेटी को पैदा होते ही मार देने की परम्परा रही है। मेरे बेटे की किसी भी किताब में यह सवाल नहीं है। मेरे घर में चार लडके और एक लडकी है। कभी ऐसा भेद नहीं हुआ कि उसे यह सवाल करने पडे। जिस सामाजिक व्यवस्था में वो पल बढ रहा है, वहां से भी ऐसा सवाल उपजने का सवाल पैदा नहीं होता। वो एक छात्र विद्यालय में पढता है लेकिन लडकियों के बारे में ऐसे विचार तो वहां भी नहीं रखे जाते। उसे तो अपने सवाल का जवाब कहीं न कहीं से मिल गया लेकिन मेरे लिए चिंता बढ गई कि उसने यह सवाल उठाया कहां से ? मैंने अपने भतीजे से पूछा कि यह सवाल क्यों किया ? बारह वर्षीय भतीजे पीयूष ने बताया कि टीवी में एक नाटक आ रहा है जिसमें बताया गया कि बेटी को पैदा होते ही मार दिया जाता है। बेटिया होती ही ऐसी है। छानबीन करने पर पता चला कि मेरे बेटे सहित घर के पांचों बच्चे इन दिनों टीवी पर प्रसारित हो रहे नाटक को नियमित देखते हैं। इस नाटक में बेटी को अभिषाप के रूप में बताया गया है। भले ही नाटक का भाव शुद़ध है लेकिन वर्तमान परिवेश में जिन बच्चों को बेटे और बेटी में भेद नहीं पता, उन्हें टीवी का यह सीरियल भेद बता रहा है। इस सीरियल में वर्तमान युग में बेटियों के साथ हो रही ज्यादती को दर्शाया गया है। एक तरफ नाटक के किरदार मोबाइल फोन पर बात करते दिखाए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ दस वर्ष की बच्ची को ससुराल में और ग्यारह वर्ष की बेटी को बाल विधवा के रूप में दिखाया गया है। जहां तक मेरा मानना है देश में अब बाल विवाह की स्थिति खत्म होने के कगार पर है। जो बाल विवाह हो रहे हैं वो भी सोलह से 18 वर्ष के बीच के हैं। वैसे भी इतनी जागरुकता आ चुकी है कि लोग ही ऐसे विवाह रुकवा देते हैं। बाल विधवा जैसे हालात भी अब नहीं है। फिर भी कहीं ऐसी दुर्घटना हो भी जाए तो ससुराल वाले इंसानियत के दम पर बच्ची को अपनी पलको पर बिठाते हैं। मैने तो ऐसे किस्से भी देखे हैं कि वयस्क बच्ची को शादी के कुछ माह में ही विधवा होने पर ससुराल वाले धूमधाम से दूसरी शादी कर देते हैं। अगर किसी ठेठ ग्रामीण अंचल में ऐसा हो भी रहा है तो वहां ऐसे नाटक देखने वाले नहीं होंगे। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जिस परिवेश में हम बाल विवाह और बाल विधवा जैसे संकट से दूर होना सीख रहे हैं, तब इसी को आधार बनाकर नाटक दिखाना कहां तक जायज है। हम क्यों छोटे बच्चों को यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि बेटी होना अभिषाप है। उनके कारण घर वालों को जगह जगह नाक रगडनी पडती है। ऐसे नाटकों का प्रसारण कहां तक जायज है जो बडे बर्तन में जिंदा बेटी को मारते हुए दिखाए। हम क्यों यह साबित करना चाहते हैं कि ऐसी व्यवस्था हमारे देश में रही है। बेहतर होगा कि हम ऐसे सीरियल तैयार करें जो बालिका वधु के बजाय बालिका प्रतिभा के रूप में दिखे। यह सुनाया जाए कि 'लाडो आना ही होगा इस देश में।' यह मेरा विचार है कि ऐसी सामग्री नहीं परोसनी चाहिए जिससे नई पीढी बालक और बालिका में भेद करना सीखे। देश और समाज की भलाई टीआरपी से नहीं बल्कि सांस्कृतिक ताने बाने को सुधारने से होगी। अब तो ऐसी दादी भी नहीं जो लडकियों से इतनी घृणा करें। देश में उन लोगों की संख्या बढ रही है जो एक लडकी के बाद भी 'परिवार कल्याण' में विश्वास करने लगते हैं।
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3 comments:
देश और समाज की भलाई टीआरपी से नहीं बल्कि सांस्कृतिक ताने बाने को सुधारने से हो-बिल्कुल सही कहा.
audio visual tareeke se diye gaye sandesh kis tarah bacchon ko bhramit kar saketein hai. yaha uska utkrasht udaharan hai.
यदि ऐसे सिरीयल जागरूकता ला सकें, यह बता सकें कि इस तरह के पापों से हमें बचना और समाज को बचाना है तो ही सार्थकता समझ में आती है।
हमें भी अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों के साथ इस तरह की कुरीतियों को खत्म करने इनकी बुराईयों का असर भविष्य में कितना भयावह होगा समझाने की जरूरत है।
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