मैं देवी देवताओं के पर्चे देने में विश्वास नहीं करता लेकिन भगवान के प्रति आस्था अवश्य है। पिछले दिनों वैष्णों देवी मंदिर में जो कुछ भी हुआ, उससे मेरी आस्था में ही बढ़ोतरी हुई। मैं यह मानने के लिए मजबूर हो गया कि मां ने ही मुझे दो बार बचाया है। एक बार पिता जी का जीवन और दूसरी बार करीब तीस हजार रुपए के आर्थिक नुकसान से। कैसे, यह तो नीचे लिखी घटना पढ़ने से ही पता चलेगा। वैष्णों देवी में मेरी आस्था के दो प्रमुख कारण है। पहला यह कि पिछले वर्ष सितम्बर में मेरे घर के करीब तीस टिकट बनने के बावजूद हम नहीं जा सके। दरअसल तब पिताजी वहां जाना चाहते थे। उनके साथ जाने के लिए कारवां बढ़ता गया। पहले पांच फिर दस, फिर बीस ऐसे करते करते तीस जने हो गए। जाने से करीब दस दिन पहले रात में पिताजी के सीने में बहुत हल्का सा दर्द हुआ। आम दिनों में वो ऐसे दर्द को गंभीरता से नहीं लेते थे। चूंकि इस बार वैष्णो देवी जाने की तैयारी चल रही थी, वहां पैदल चढ़ना पड़ेगा, काफी दूरी तक चलना होगा? ऐसी आशंकाओं को चलते बड़े भाई डॉ: राहुल को दर्द की जानकारी दी ताकि जाते वक्त साथ में दवा ले सकें। उसने हृदय विशेषज्ञ को दिखाने के लिए कहा, वहां एंजियोग्राफी करवाई तो हृदय में नब्बे फीसदी मेजर ब्लॉकेज का पता चला। तुरंत जयपुर के फोर्टिस एस्कोर्ट अस्पताल में बाइपास सर्जरी करवाई। चिकित्सकों का कहना है कि मधुमेह रोग के कारण पिताजी को पता ही नहीं चल रहा था कि उन्हें एक अटैक पहले हो चुका है। वैष्णों देवी जाने का कार्यक्रम नहीं होता तो शायद इस बार भी पता नहीं चलता। मां वैष्णों देवी के कारण ही आज हमारा परिवार सुरक्षित है। अब पिता जी ठीक हो गए तो मैं और मेरी पत्नी एक दोस्त परिवार के साथ वहां के लिए रवाना हो गए। हम पंद्रह जून को वैष्णों देवी पहुंच गए। बीच रास्ते में श्राइन बोर्ड की व्यवस्थाएं इतनी बेहतर है कि कभी उसी पर ब्लॉग लिखूंगा। खैर अभी मेरी आस्था का दूसरा कारण बताना चाहूंगा। वैष्णों देवी मंदिर में आपके साथ कुछ भी नहीं जा सकता। ऐसे में आपको सारा सामान मंदिर के बाहर बने लॉकर में रखना पड़ता है। व्यवस्था इतनी बेहतर है कि आपको जाते ही एक लॉकर की चाबी सौंप दी जाएगी। अपना सामान रखो और दर्शन करके आने पर वापस सामान लेकर लॉकर की चाबी जमा करा दो। हमने भी ऐसा ही किया। मुझे सात सौ नम्बर का लॉकर मिला। हमने लॉकर में सारा सामान डाल दिया। एक बैग में हमारे चार मोबाइल जिनकी कीमत पुराने होने पर भी करीब बीस हजार रुपए होगी। एक सोनी का साइबर शॉट डिजीटल कैमरा व कुछ नकद राशि रख दी। दर्शन करके बाहर निकले तो वर्षा शुरू हो गई। अब तक जिस लॉकर रूम में विशेष भीड़ नहीं थी वो खचाखच भर गया। पैर रखने को भी जगह नहीं थी। सामान निकालते वक्त ऐसा लगा कहीं भगदड़ नहीं मच जाए। सात सौ नम्बर लॉकर से सामान निकालकर मैं और मेरा मित्र स्वयं पर लाद रहे थे कि अचानक पीछे से धक्का आया। मैं जैसे तैसे स्वयं को संभालकर बाहर निकला। मंदिर के पास भूतल में हमने एक जगह रात को रुकने का इंतजाम किया था। वहां पहुंचते ही मुझे वो काला बैग याद आया। दरअसल उस बैग को मैं अपनी पीठ पर लादकर कटरा से वैष्णोदेवी तक लाया था। इसलिए बैग नहीं होते हुए भी मुझे यही अहसास था कि मेरे पीछे टंगा हुआ है। देखा तो बैग नहीं था। मुझे याद था कि लॉकर से निकालने के बाद ही मैंने उसमें डिजीटल कैमरा डाला था। हम दोनों मित्र दौड़ते हुए निकले। जिस रास्ते आए उसे पूरा खंगाल लिया। मेरा मित्र ज्यादा परेशान था क्योंकि उसे बैग में पड़े मोबाइल से ज्यादा उसमें लगी चिप के दुरुपयोग की आशंका थी। हम लॉकर रूम तक निराश थे। लॉकर रूम में वर्षा के कारण भीड़ और बढ़ चुकी थी। जैसे तैसे मेरा मित्र लॉकर के पास पहुंचा और वहीं से जोर से चिल्लाया '' जै माता दी'' बैग मिल गया। हजारों की भीड़ में हमारा बैग वहीं पड़ा था। राहत मिली तो मां को धोक लगाई। मंदिर में जगह जगह लिखा है जेबकतरों से सावधान। सोचा कि गलत लिखा हैं मां के दरबार में इसकी कहां जरूरत है।
मां कहती हैं ''मैं हूं ना''।
यात्रा के इस दौर में सुभाषचंद्र बोस की बावड़ी अगली बार चलेंगे।