अनुराग हर्ष
इस देश में अखलाक की मौत से सहिष्णुता खतरे में पड़ सकती है, दलित परिवार पर हमले से समूचे राष्ट्र को शर्मसार होना पड़ सकता है, इन दुखद घटनाओं पर स्तरहीन टिप्पणी करने वाले नेताओं के बयान मुद्दा बन सकते हैं लेकिन गुरुशरण छाबड़ा की मौत शायद चर्चा का विषय तक नहीं है। अधिकांश पाठक तो यह सोच रहे होंगे कि यह गुरुशरण छाबड़ा है कौन! जिसकी मौत पर इतनी कलम घसी जा रही है। मैं गुरुशरण छाबड़ा के राजनीतिक इतिहास और उनके जीवन के किसी भी पहलू पर चर्चा करने के बजाय उनकी मौत से पहले उठाए मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। ७० वर्ष के गुरुशरण सूरतगढ़ के पूर्व विधायक थे और इन दिनों प्रदेश में शराबबंदी की मांग को लेकर संघर्षरत थे। यह संघर्ष अखबार के दफ्तरो में विज्ञप्ति देने तक और इलेक्ट्रानिक मीडिया कार्यालयों में बाइट देने तक सीमित नहीं था। वो चौथी बार इसी मांग को लेकर अनशन पर बैठे थे। बीमार हुए और मंगलवार सुबह साढ़े चार बजे मरण के साथ ही अनशन का दुखद अंत हो गया। हकीकत यह है कि गुरुशरण के निधन पर घडियाली आंसू बहाने वालों ने उनके अनशन को गंभीरता से नहीं लिया। न तो वर्तमान भाजपा सरकार ने और न पूर्व की कांग्रेस सरकार ने। गंभीरता से लेते भी कैसे? छाबड़ा उस शराबबंदी की मांग कर रहे थे, जो प्रदेश की राजस्व का सबसे बड़ा रास्ता है। बंद बोतल की शराब भले ही किसी के घर को उजाड़ रही है लेकिन सरकार का मानना है कि प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुधारने में शराब का बड़ा योगदान है। बंद करना तो दूर दोनों सरकारें शराब से मिलने वाले राजस्व के लक्ष्य को निरंतर बढ़ाती रही है। आज प्रदेश में शराब का ठेका लेने के लिए प्रतिस्पद्र्धा है, बोली लगती है, लॉटरी खुलती है। मानो किसी का घर उजाडऩे के लिए होड मची है। कहते हैं 'रुखी सुखी खा लेंगे लेकिन इमान से समझौता नहीं करेंगे।Ó सरकार ऐसा नहीं मानती। उसे तो बस राजस्व चाहिए। वो भले ही शराब से आए या फिर भांग, डोडा या पोस्त से। अगर ऐसे राजस्व से मेरे शहर में ओवरब्रिज बना है, सड़क बनी है तो मुझे टूटी सड़क के धक्के और बिना ओवरब्रिज की बिगड़ी यातायात व्यवस्था पसन्द है। गुरुशरण के निधन के बाद अब राजनीति शुरू हो गई है। जिन नेताओं ने अब तक उनकी कोई सुध नहीं ली, मांग को गंभीरता से नहीं लिया, उनका मखौल उड़ाया, जिन चाटुकारों ने उनका नाम तक नहीं सुना, वो सभी दुख जता रहे हैं। उन्हें दुख होगा कि गुरुशरण के आसपास रहते तो चुनाव में टिकट मिल जाता, और नहीं तो कुछ वोट मिल जाते। ऐसे चाटुकारों को शायद पता नहीं होगा कि संवेदना के साथ राजनीति करने वाले को वोट नहीं मिलते। खुद गुरुशरण दोबारा मैदान में उतरे तो महज हजार वोट के आसपास सिमट गए। यह वो ही गुरुशरण थे, जिन्होंने निर्दलीय चुनाव लडऩे की घोषणा की तो हजारों लोगों ने कंधों पर बिठा लिया था, वोट हुए, मतगणना हुई तो पता चला कि हजार वोट आए। दरअसल, मुद्दों की लड़ाई पर देश में वोट मिलने बंद हो चुके हैं, नेताओं की नहीं शायद आम आदमी की संवेदना भी खुद तक सिमट कर रह गई है, वो अपने लाभ के लिए वोट देता है, राष्ट्र समाज और इंसानियत नजर नहीं आती। दो चार दिन में गुरुशरण की मूर्ति लगाने, स्मारक बनाने की मांग होने लगेगी, लेकिन कोई यह कहने वाला नहीं मिलेगा कि अगला 'गुरुशरणÓ मैं हूं। आखिर शराब बंदी के खिलाफ देश और प्रदेश में मांग क्यों नहीं उठती। बहुत कम लोगों को पता होगा कि एड्स, कैंसर, डेंगू, स्वाइन फ्लू, हृदयघात और कई गंभीर बीमारियों से होने वाली मौतों से भी बड़ा आंकड़ा शराब के कारण मरने वालों का है। किडनी फेल होने सहित कई तरह की बीमारियों का बड़ा कारण शराब और सिर्फ शराब है। सत्ता में बैठे नेता तो नहीं समझ सकते कि गुरुशरण की मांग का वजन कितना था, विपक्ष में बैठे नेता सिर्फ बयान दे सकते हैं। सोचना और समझना तो आम इंसान को है। शराब बंदी होनी चाहिए, होनी चाहिए, होनी चाहिए।
श्री गुरुशरण छाबड़ा को 'दैनिक नेशनल राजस्थान का नमन्।