बाबा रामदेव पिछले कुछ दिनों से फिर चर्चा में है। पहले बाबा रामदेव, फिर अन्ना हजारे। बाबा औरतों के कपड़े पहनकर मैदान से भाग गए थे और बाबा रामदेव राजनीति को विकल्प बताते हुए अपनी ही टीम को भंग कर चुके हैं। इसके बाद भी भारतीय जन और जनतंत्र की मजबूरी है कि इन लोगों पर भरोसा करना पड़ेगा। दरअसल, बाबा और अन्ना ने जिन विषयों के आधार पर जनता की नब्ज पकड़ी है, वो सटीक है। भ्रष्टाचार और काला धन वापस लाने का अभियान देश की आजादी का दूसरा अभियान कहा जा सकता है। इसके बाद भी यह सोचने की जरूरत है कि आखिर क्या इस मुहिम के बाद देश दोबारा आजाद हो सकेगा। दरअसल, रामलीला मैदान और जंतर मंतर पर भीड़ के रूप में खड़े होने वाले चेहरों से ही सब कुछ नहीं बदलने वाला। बदलने के लिए तो आम जन में विश्वास जगाना पड़ेगा। फिलहाल बाबा और अन्ना जो कर रहे हैं वो सड़क पर तमाशा दिखाने वालों के पास एकत्र होने वाली भीड़ जैसा है। तमाशा वाला जान जोखिम में डालकर कई करतब दिखाता है तो हम उनकी गरीबी और करतब की गंभीरता को देखते हुए एक या दो रुपए उसकी झोली में डाल देते हैं। जैसे ही करतब से हटते हैं, उस गरीब के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। ठीक वैसे ही हम अन्ना और बाबा के आंदोलन से एंटरटेनमेंट महसूस कर रहे हैं। पिछले डेढ़ वर्ष में आखिर किस शख्स ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की तैयारी की है।
बाबा रामदेव ने साफ कर दिया कि वो राजनीतिक पार्टी में रुचि नहीं रखते ऐसे में उन्हें साफ करना होगा कि उनके आंदोलन का चरण क्या होगा। यह भी बताना होगा कि अगर सरकार उनके अनशन और आंदोलन से नहीं मानेगी (जिसकी शत प्रतिशत उम्मीद है) तो वो क्या करेंगे। दस दिन का खेल दिखाकर आश्रम जाएंगे या फिर सरकार खदेड़ेगी तो लड़कियों के कपड़े पहनकर भाग निकलेंगे। अगर नहीं तो आखिर किस तरह उनका आंदोलन चलेगा। दरअसल, जनता जिन लोगों पर विश्वास करना शुरू करती है, वो ही बाद में धोखा दे जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अन्ना ने पिछले दिनों दिया। जनता से दो दिन में एसएमएस करने की राय पूछी, हजारों लोगों ने छह छह रुपए के एसएमएस टीवी चैनलों और स्वयं अन्ना को किए लेकिन उसका विश्लेषण करने से पहले ही टीम अन्ना अन्ना पार्टी बन गई। जब पार्टी बनानी ही थी तो लोगों के एसएमएस क्यों खराब करवाए। इसी तरह बाबा रामदेव भी कुछ करेंगे, ऐसी आशंका से इनकार करने का कारण नहीं है। बाबा रामदेव को अपने आंदोलन का हर चरण्ा स्पष्ट करना होगा। हार हुई तो ऐसे, जीत हुई तो ऐसे करेंगे। देश की आजादी डेढ़ साल में नहीं मिली थी। एक शतक वर्ष में जाकर यह सपना पूरा हो पाया। वो भी तब जब अंग्रेज इस देश से हार चुके थे, छोड़ना चाहते थे। इसके विपरीत जिस दूसरी आजादी की बात कर रहे हैं, वहां भ्रष्ट नेता न तो अंग्रेजों की तरह छोड़ना चाह रहे हैं और न उनके लिए कोई विपरीत स्थिति बन पाई है। ऐसे में आंदोलन में बार बार होने वाली हार तो सहन हो सकती है लेकिन अन्ना की तरह मैदान छोड़कर भागने की नीति अब भारत की जनता शायद सहन नहीं कर पाए।
आंदोलन में अंतर
अन्ना और बाबा रामदेव के आंदोलन में एक बड़ा अंतर है। वो यह कि अन्ना के पास अपनी एक टीम है और वो लगभग पूरे देश में सक्रिय है। ऐसे में बाबा का नेटवर्क बड़ा और सुव्यवस्थित है। इसके विपरीत अन्ना के पास अपनी टीम के अलावा कोई कसावटभरा नेटवर्क नहीं था। इसी कारण उन्हें कम भीड़ और बाद में उपेक्षा जैसी सच्चाई से सामना करना पड़ा। बाबा रामदेव को यह समस्या नहीं है। देश के अधिकांश हिस्सों से उनके एक इशारे पर हजारों लोग पहुंच सकते हैं। अगर उनके आंदोलन में सच्चाई रही तो दूसरे लोग भी उनसे जुड़ेंगे और आंदोलन को सफलता की राह पर ले जाएंगे।
सरकार नहीं है गंभीर
अन्न की तरह बाबा के आंदोलन को लेकर भी केंद्र सरकार गंभीर नहीं दिख रही। दरअसल, अन्ना के विफल आंदोलन के बाद सरकार के हौंसले बुलंद है और उन्हें लगता है कि बाबा रामदेव भी आठ दस दिन बाद अपने आप चले जाएंगे। ऐसे में आंदोलन लम्बा चल सकता है जिसके लिए बाबा टीम को तैयार रहना चाहिए।
परिणाम मिलना जरूरी नहीं
बाबा को यह सोचकर भी आंदोलन नहीं करना चाहिए कि उन्हें शत प्रतिशत परिणाम इस बार ही मिल जाएगा। निश्चित रूप से इसमें विलम्ब हो सकता है लेकिन तब तक के लिए इंतजार करना चाहिए। आंदोलन को पहले चरण में ही साफ कर दिया जाना चाहिए कि अगर मांगे नहीं मानी गई तो फलां तारीख से यह निर्णय होगा।
Thursday, August 9, 2012
Saturday, August 4, 2012
क्या टीम अन्ना हार गई ?
अन्ना हजारे ने सोलह महीने पहले जो आंदोलन किया था, उसका अंत हो गया या फिर दूसरा चरण शुरू हो गया है। मेरा मानना है कि आंदोलन का दूसरा चरण शुरू हो गया है। इसका आशय यह कतई नहीं है कि मैं पहले चरण को सफल मान रहा हूं। मेरा मानना है कि पहले चरण की विफलता के बाद दूसरे चरण में संभावना तलाशी जा रही है। ऐसा स्वयं अन्ना और उनकी टीम भी स्वीकार कर चुकी है कि वो पहले चरण में हारने के बाद अब दूसरे चरण में प्रवेश कर रहे हैं। सवाल यह है कि जब पहला चरण हार ही गए तो दूसरे चरण की जरूरत ही क्या है। अन्ना अपने राणेगाव सिद्वि में काम संभालें और अरविन्द अपने कर विभाग को सेवाएं दें। जहां तक संभव हो लड़े। बाकी सदस्य भी अपना रास्ता नापें। दरअसल, इस आंदोलन को लेकर देशभर में भारतीय भावनाएं जागी थी। दरअसल, अन्ना ने अपने गांव और महाराष्ट में भ्रष्टाचार के खिलाफ अच्छा काम किया था। इसलिए उम्मीद जगी थी कि वो कुछ अच्छा कर देंगे। देश ने उनमें गांधी जैसा साहस और लाल बहादुर शास्त्री जैसा अटल विश्वास देखा था। संभव है कि वो आज भी कायम है लेकिन उनकी टीम इस विश्वास पर खरी नहीं उतरी। यह तो मानना ही होगा कि अच्छी टीम का चयन करना उनके लिए संभव नहीं था। कुमार विश्वास सहित कई युवा चेहरे अच्छे हैं लेकिन राजनीति के पचड़े से काफी दूर। कई ऐसे लोग भी है जो एनजीओ में काम करते हुए तथाकथित ईमानदार है। शब्दों के चयन में माहिर इन लोगों के भरोसे न तो देश वोट कर सकता है और न राजनीतिक दावपेंच में वो सफल हो सकते हैं। बेहतर होता कि अन्ना अपना आंदोलन जारी रखते। भले ही दस बार ओर उन्हें बिना किसी परिणाम के अनशन से उठना पड़ता। महात्मा गांधी भी तो कई बार बिना निर्णय के ही अनशन से उठे होंगे। जरूरी नहीं था कि सरकार उनके सामने झुकती। जनता ने तो सजदा किया ही था। अन्ना के आंदोलन की तुलना जेपी के आंदोलन से की गई। यहां यह समझने का प्रयास करना होगा कि जेपी के आंदोलन की मियाद कितनी थी। अन्ना की तरह महज सोलह महीने में खत्म नहीं हो गया था या फिर अपना इरादा नहीं बदल दिया था। जेपी के आंदोलन से निकले नेता भी आज साफ नहीं है, उन पर भी दाग है। एक लम्बे संघर्ष के बाद निकले नेता शरद यादव, परिवारवाद के नए चेहरे मुलायम सिंह यादव और चारा किंग लालू प्रसाद यादव ने जेपी की विचारधारा की हवा निकाल दी। नीतिश्ा कुमार कुछ हद तक सफल है लेकिन कोयले की खान में बेदाग वो भी नहीं रह सके। इसी तरह कैसे मान लिया जाए कि राजनीति में आने के बाद अन्ना की टीम के सदस्य भी बेदाग रह पाएंगे। वो भी तब जब उन पर आरोप लगने का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है।
अन्ना को एक बार फिर विचार करना चाहिए। अभी वक्त बाकी है। पार्टी का गठन नहीं हुआ है। एक समान सत्ता खड़ा करने का तरीका सिर्फ राजनीति में आना नहीं है बल्कि अपने दम पर भीड़ एकत्र करना भी है। अन्ना जंतर मंतर पर उस सामान्य भीड़ को देखकर शायद हताश हो गए लेकिन हकीकत में भ्रष्टाचार के मुद़दे पर पूरा देश उनके साथ है। वोट देने के लिए शायद नहीं। जब लोकसभा चुनाव आएगा तो मेरे शहर के लोग इस लिए वोट नहीं करेंगे कि वो ईमानदार है या बेईमान। वो तो इसलिए मतदान करेंगे कि सामने वाला कौनसी जात का है। इस सत्य से मुंह मोड़ा नहीं जा सकता। अगर टीम अन्ना भी इसी आधार पर टिकटों का वितरण करते हुए ईमानदार लोगों को सामने लाएगी तो कहा जाएगा कि जातिवाद को स्वीकार कर टीम अन्ना आगे बढ़ी है। किसी भी रास्ते से टीम अन्ना का राजनीति में आना उचित नहीं है। मुझे तो स्तम्भकारों का यह प्रश्न भी सही लगता है कि टीम अन्ना सत्याग्रह कर रही थी या फिर दूराग्रह। अगर यह सत्याग्रह था तो इसका परिणाम यह नहीं होना चाहिए था। अन्ना आपसे देश उम्मीद कर रहा है, प्रधानमंत्री बनने की नहीं, देश को सुधारने की।
Friday, May 18, 2012
नहीं मिल रहा देश का पहला नागरिक
इन दिनों देश में प्रथम नागरिक की तलाश हो रही है। कुछ ही तलाश अमेरिका में भी चल रही है। वहां राष्टपति चुनाव को लेकर जितनी सरगर्मी है, उसका एक फीसदी हिस्सा भी हमारे देश में देखने को नहीं मिल रहा। कारण साफ है कि इसमें छुटभैया से लेकर वरिष्ठतम नेता का खास जुड़ाव नहीं है। नेताओं की फेहरिस्त में शामिल 99 फीसदी नेताओं को इससे कोई सरोकार नहीं है कि अगला राष्टपति कौन बनने वाला है। यह तय है कि उनका नम्बर नहीं आने वाला। बात अगर आजादी के बाद की करें तो राष्टपति पद बहुत ही गरीमामय था। राष्टपति बनने की इच्छा हर बडे़ नेता की होती थी। आज ऐसा लगता है कि प्रमुख नेता इस पद से ही दूर भाग रहे हैं। कारण साफ है कि राष्टपति बनना राजनीति से रिटायरमेंट की तरह है। देशभर में नेता इसीलिए राष्टपति नहीं बनना चाहते। इन दोनों संवैधानिक पदों के प्रति खास रुचि नहीं होना हमारे संविधान की भावनाओं को चुनौती के समान है। अजीब सी उलझन है। कई बार प्रणब दा का नाम आता है तो मन कांपने लगता है। लगता है देश को चलाने वालों में प्रणब दा जैसे ही लोग बचे हैं। उन्हें भी राष्टपति बना दिया तो सरकार का क्या होगा। कैसे चलेगी सरकार। जैसे यह कल्पना करना कठिन था कि इंदिरा गांधी के बिना सरकार कैसे चलेगी, सुनील गावस्कर के बिना टीम इंडिया कैसे खेलेगी। आज भी प्रणब दा और चिदंबरम जैसे नेताओं के बाद सरकार खाली खाली लगती है। फिर ऐसे व्यक्ति की राष्टपति के रूप में खोज शुरू हो रही है जो किसी काम का नहीं हो लेकिन हस्ती बड़ी हो। पार्टियां देश के लिए नहीं बल्कि अपनी राजनीति के आधार पर नेताओं के नाम ले रही है। चिंता तो इस बात की है कि कलाम के नाम पर भी आपत्ति होने लगी है। आपत्तिजनक तो यह भी है कि कलाम का नाम दोबारा आया ही क्यों। क्या हम अपने ही नेताओं में कुछ ऐसे लोगों का चयन करने की स्थिति में ही नहीं है जो राष्टपति बन सके। पिछले कुछ वर्षो के राजनीतिज्ञों में ऐसा कोई नहीं है। कुछ ऐसी ही स्थिति राज्यपाल के चयन में भी होती है। राजस्थान को तो अर्से बाद एक मनोनीत राज्यपाल मिला।
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